बचपन से देवेश को एक तिरष्कार, जो कभी मोहल्ले के दूसरे बच्चों या उनके पालकों द्वारा झिड़की भरे अंदाज से मिलता रहा था. इस वजह से देवेश का बचपन हमेशा एक डर और निरंतर टूटे हुए आत्मबल में गुजरा. इन्ही मापदंडों के अनुसार अपनी पहचान को तरसते, आज वो बड़ा हो चुका है. निकला है एक सामजिक कार्यक्रम में शामिल होने को, अपनी एक पहचान और बहुत सारा आत्मबल लेकर.... भीड़ में जो उसे पहचानते है वो लोग उसे अनदेखा कर रहे थे . और जो उसे नही पहचानते , वो लोग जानने की कोशिश में लगे हुए है.....
“अरे..! बेटा तुम्हारा क्या नाम है...? किसके बेटे हो..? आज पहली बार तुम्हे देखा है..” एक अजनबी सज्जन ने पूछ ही लिया
“जी..! मेरा नाम देवेश है, मेरे पिता का नाम श्री दामोदर प्रसाद है..” देवेश ने बड़ी नम्रता से जवाब दिया
“ दामोदर प्रसादSSSSS!!!! …कभी नाम नही सुना..कहाँ रहते है..? पहचान नही पा रहा हूँ..” अजनबी सज्जन ने दिमाग पर जोर डालते हुए कहा
देवेश ने कुछ बताना ही चाहा, तभी एक परिचित सज्जन ने गुलाबी हंसी लिए एक आँख दबाकर तपाक से कहा..
“ अरे! यार ,,अपनी रत्ना भाभी का बेटा है....!”
जितेन्द्र ‘गीत’
(मौलिक व् अप्रकाशित)
Comment
कई बार अतीत पीछा नहीं छोड़ता ...बड़ों की गलती या मजबूरी जो भी कह लें बच्चों को भुगतनी पड़ती है क्यूंकि लोगों की मानसिकता ही ऐसी बन जाती है किसी की मजबूरी का मजाक बनाना ही उनका काम होता है ...बहुत कुछ कहती लघु कथा बधाई आपको जितेन्द्र भैया |
कुछ पहचान कभी ख़त्म नहीं होती , बहुत सुन्दर लघुकथा , बधाई जितेंद्रजी..
प्रिय जीतू !
बहुत सुन्दर ------ i जिस लघु कथा की अंतिम पंक्ति में आह--- निकले वही सार्थक है i इस कथा मे वह गुण है i
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