हामिद अब बड़ा हो गया है. अच्छा कमाता है. ग़ल्फ़ में है न आजकल !
इस बार की ईद में हामिद वहीं से ’फूड-प्रोसेसर’ ले आया है, कुछ और बुढिया गयी अपनी दादी अमीना के लिए !
ममता में अघायी पगली की दोनों आँखें रह-रह कर गंगा-जमुना हुई जा रही हैं. बार-बार आशीषों से नवाज़ रही है बुढिया. अमीना को आजभी वो ईद खूब याद है जब हामिद उसके लिए ईदग़ाह के मेले से चिमटा मोल ले आया था. हामिद का वो चिमटा आज भी उसकी ’जान’ है.
".. कितना खयाल रखता है हामिद ! .. अब उसे रसोई के ’बखत’ जियादा जूझना नहीं पड़ेगा.. जब हामिद वापस चला जायेगा, अपनी बहुरिया के साथ, अपने बेटे के साथ.. "
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(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
आदरणीया राहिलाजी, प्रस्तुति पर आपकी टिप्पणी केलिए आपका हार्दिक धन्यवाद.
सादर
आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानीजी, आपकी संवेदनापूरित प्रतिक्रिया से मन तुष्ट हो गया. प्रस्तुति पर आपकी दृष्टि के लिए मैं हृदय से धन्यवाद कह रहा हूँ.
बहुत ही जबरदस्त रचना आदरणीय सौरभ जी ! मैं कुछ भी कहूं तारीफ़ में तो भी कम होगा । बहुत बधाई आपको । सादर ।
इस लघुकथा को अनुमोदित करने केलिए सादर आभार, आदरणीया कल्पनाजी..
स्वार्थ की पराकाष्ठा को पर करती आपकी लघुकथा मन को अंदर तक व्यथित कर गई, उत्कृष्ट रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई आदरणीय सौरभ जी!
आदरणीया छायाजी, रचना पर समय देने और उत्साहवर्द्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद
भाई हमनाम, आपने काश देवनागरी लिपि में अपना कहा उद्धृत किया होता.
मुझे इस शब्द shakhanvit का ही अर्थ स्पष्ट नहीं हुआ.
बहरहाल समय देने के लिए हार्दिक धन्यवाद
धन्यवाद आदरणीया कविताजी
भाई दीपकजी, आपने इस प्रस्तुति पर समय दिया, हार्दिक धन्यवाद
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