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दृष्टि   मिलन  के  प्रथम पर्व में

दृप्त    वासना   नभ   छू   लेती

पागलमन   को   बहलाता   सा

जग  कहता   नैसर्गिक   सुख है I

 

क्या  निसर्ग  सम्भूत  विश्व  में

क्या स्वाभाविक और सरल क्या

वाग्जाल   के    छिन्न   आवरण

में     मनुष्य   की   दुर्बलता    है I

 

बुद्धि   दया   की   भीख मांगती

ह्रदय    उपेक्षा    से    हंस    देता

मानव !    तेरी      दुर्बलता    का

इस    जग   में   उपचार   नहीं  है I

 

संस्कार    है    गत    जन्मो   का

या   फिर     है   अँधा    आकर्षण

छल   भी   नहीं   न   है  सम्मोहन

मनुज    हृदय   का    पाप  प्रेम   है I

 

 

[मौलिक व् अप्रकाशित ]

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 5, 2014 at 9:25pm

आशीर्वाद ? नाः नाः ..  आदरणीय, सादर सहयोग कहें.

आपको प्रतिक्रिया-रचना रोचक लगी, इसका आभार.

शुभ-शुभ

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 5, 2014 at 8:53pm

महनीया  प्राची जी

आप स्वयं विशेषज्ञा  हैं i आपकी संस्तुति परम तोष प्रदान करती है  i सादर i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 5, 2014 at 8:51pm

आदरनीय  निकोर जी

आपसे आशिर्वाद मिलता है  तो मन सावन सा लहराने लगता है i सादर i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 5, 2014 at 8:49pm

आदरनी सौरभ जी

आपने प्रेम को अपनी कविता में इतना सुन्दर परिभाषित  किया कि मै निःशब्द हूँ i आप बेजोड़ है श्रीमन  i आपका आशीर्वाद सदा मिले i


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on August 4, 2014 at 10:56pm

प्रेम के बाह्य स्वरुप के अंतर्मन को उद्वेलित करते प्रारूप पर मनस वृत्तियों की खूब एनालिसिस करके ये प्रवहमान रचना प्रस्तुत हुई है...

बहुत खूबसूरत 

हार्दिक बधाई आ० गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी 

Comment by vijay nikore on August 4, 2014 at 5:57pm

सुन्दर बिम्ब, सुन्दर भाव, सुन्दर शिल्प .... सभी कुछ है आपकी इस कविता में। हार्दिक बधाई, आदरणीय गोपाल नारायन जी


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 4, 2014 at 5:41pm

कोमल पल के न्यून भाग में
जिन शुभ भावों को मन जीता
उस ही के सम्मोहन में तन
नत होता है, रत होता है

देह धर्म के साधन के हित
माध्यम मात्र यदि माने तो
संयोजन ही मूल आचरण  
सदा सनातन अनुभव कहता

यही भाव है, मोद यही है
यही उर्ध्व आचार सही है
यही प्रेम का अभिनव रूपक
इसके इतर कहाँ कुछ संभव ?

तन की सिहरन से आवेशित
मूढ़ मनुज हो यदि उद्वेलित
नहीं कहो वह प्रेमपगा है,
वह तो पाप-श्राप जीता है..

आदरणीय गोपालनारायणजी, आपकी प्रस्तुति के आलोक में मैंने प्रेम के सात्विक स्वरूप को शब्दबद्ध करने का प्रयास किया है. मनुष्य का बाह्यकरण प्रेम की भौतिक प्रक्रिया के रुपायित होने का कारण है, नकि प्रेम के सत-चित-आनन्द स्वरूप का प्रवर्तक !!

शैली और विन्यास के तौर पर आपकी रचना से मुझे हरिऔंधजी का प्रिय-प्रवास की स्मृति हो आयी. उनकी मात्रिकता और गेयता निर्वहन करती छन्दबद्ध अतुकान्त रचनाएँ !  आपने मात्रिकता का खूब निर्वहन किया है.
बधाई आदरणीय, बधाई..
सादर

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 4, 2014 at 11:51am

जीतू जी

आपका आभारी हूँ i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 4, 2014 at 11:50am

जवाहर लाल जी

आपके उत्साहवर्धन का आभारी हूँ  i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 4, 2014 at 11:49am

पाठक जी

आपका हार्दिक आभार i

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