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नित्य प्रति दिनकर,संग आके किरनों के,
बड़े प्यार ही से सारे ,जग को जगाता है।
तप करता है जब,खुद ही को जला जला,
सारी धरती को रवि,तभी तो तपाता है।
सुप्त हुए सब अंग,काले काले सब रंग,
लाके साथ सप्त रंग,जग को हँसाता है।
दिन रात आते जाते,भ्रम अपना बनाते,
सूरज तो कभी कहीं,आता है न जाता है
सीमाहरि शर्मा 1.08.2014
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by seemahari sharma on August 2, 2014 at 11:21pm
आभार आ.kalpna mishra bajpai जी।
Comment by kalpna mishra bajpai on August 2, 2014 at 10:56pm

सुंदर घनाक्षरी आदरणीया 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 2, 2014 at 8:02pm

वाह---- क्या बात है महनीया  !

दिन रात आते जाते,भ्रम अपना बनाते,
सूरज तो कभी कहीं,आता है न जाता है

Comment by Meena Pathak on August 2, 2014 at 3:14pm

बहुत सुन्दर 

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