अगम है प्रेम पारावार फिर भी प्रिये पतवार लेकर आ गया हूँ I
विकल मन में जलधि के ज्वार फूटे
तार संयम अनेको बार टूटे
प्राण आकंठ होकर थरथराये
नेह के बंधन सजीले थे न छूटे
प्यास की वासना उद्दाम ऐसी नयन सागर सहेजे आ गया हूँ I
नयन ने काव्य करुणा के रचे हैं
कौन से पाठ्यक्रम इससे बचे हैं
किसी कवि ने इन्हें जब गुनगुनाया
लाज ने तोड़ डाले सींकचे हैं
गीत संसार को ऐसे न भाते तरह जैसे कि मै सरसा गया हूँ I
न जाने कौन सा उन्माद है यह
चरम है और अनहद नाद है यह
रूप में रमना रमकर राम होना I
प्रकृति का शास्वात रस्वाद है यह
चाह थी नील- नभ में श्याम हो लूँ राह मे अभ्र से टकरा गया हूँ I
अगम है प्रेम पारावार फिर भी प्रिये पतवार लेकर आ गया हूँ I
(मू ल व् अप्रकाशित )
Comment
आ0 गोपाल दास सर सुंदर रचना के लिए बधाई /सादर
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