२१२२ २१२२ २१२
जंग दौलत की छिड़ी है रार क्या
आदमी की आज है दरकार क्या १
जालसाजी के घनेरे मेघ है
हो गया जीवन सभी बेकार क्या२
लुट रही है राह में हर नार क्यों
झुक रहा है शर्म से संसार क्या ३
छल रहे है दोस्ती की आड़ में
अब भरोसे का नहीं किरदार क्या ४
गुम हुआ साया भी अपना छोड़कर
हो रहा जीना भी अब दुश्वार क्या ५
धुंध आँखों से छटी जब प्रेम की
घात अपनों का दिखा गद्दार क्या६
इन निगाहों में खलिस थी पल रही
आइना भी खोलता है सार क्या ७
खिड़कियाँ तो बंद हिय की खोलिए
माफ़ अपनों को करो ,तकरार क्या८
धड़कने क्यों हो रही है अजनबी
रंग जीवन के सभी उपहार क्या ९
बाँट लो खुशियाँ सभी जीवन है कम
ख्वाब अँखियों के करे साकार क्या १०
"शशि " कहे तुम रंज अपने भूलकर
बढ़ चलो राहों में अपनी ,वार क्या ११
----------- शशि पुरवार
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आप सभी माननीय सुधिजनो का हृदय तल से आभार , आप सभी की अनमोल टिप्पणी ने रचना को गौरान्वित किया और हमें बहुत उर्ज्वासित किया
लाजवाब गज़ल हेतु बहुत बहुत बधाई आप को
आदरणीया शशि जी ..इस सुंदर ग़ज़ल के हार्दिक बधाई ..सादर
आदरणीया शशिजी, ग़ज़ल विधा पर आपका प्रयास अच्छा लगा.
यों इस ग़ज़ल के कुछ शेरों के कथ्यों में तार्किकता आवश्यक है.
बहरहाल, आपके इस गंभीर प्रयास के लिए बधाई .....
शशि जी
बहुत लाजवाब गजल i
लुट रही है राह में हर नार क्यों
झुक रहा है शर्म से संसार क्या
गुम हुआ साया भी अपना छोड़कर
हो रहा जीना भी अब दुश्वार क्या -----आदरणीया शशि जी , बहुत सुन्दर ग़ज़ल और इन अश 'आर के लिए बधाइयाँ |
आदरणीया शशि पुरवार जी, सदर अभिवादन!
मेरे हिशाब से प्रासंगिक पंक्तियाँ-
लुट रही है राह में हर नार क्यों
झुक रहा है शर्म से संसार क्या ३ साधुवाद!
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