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नीर पनघट से भरना, बहाना गया
चाहतों का वो दिलकश जमाना गया
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दूरियाँ तो पटी यार तकनीक से
पर अदाओं से उसका लुभाना गया
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पेड़ आँगन से जब दूर होते गये
सावनों का वो मौसम सुहाना गया
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आ गये क्यों लटों को बिखेरे हुए
आँसुओं का हमारे ठिकाना गया
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नाम उससे हमारा गली गाँव में
साथ जिसके हमारा जमाना गया
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गंद शहरी जो गिरने लगी रोज अब
झील के तट परिंदों नहाना गया
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( रचना - 11 दिसम्बर 2011 )
मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’
Comment
आदरणीय बहन प्राची जी आपको गजल अच्छी लगी यह मेरे लिए हर्ष का विषय है । स्नेह बनाए रखें ।
आदरणीय भाई गिरिराज जी रचना पर प्रतिक्रिया से उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आदरणीया महिमा जी गजल पर आपकी उपस्थिति से उत्साहवर्धन हुआ है हार्दिक आभार ।
आदरणीय सौरभ भाई जी , आपकी प्रतिक्रिया से उत्साहवर्धन हुआ । इस स्नेहाशीष के लिए हार्दिक आभार ।
अच्छे अशआर कहे हैं आ० लक्ष्मण धामी जी
ये शेर तो बहुत पसंद आया ....
दूरियाँ तो पटी यार तकनीक से
पर अदाओं से उसका लुभाना गया
बहुत बहुत बधाई
आदरणीय लाक्स्मन भाई , सुन्दर ग़ज़ल हुई है , बधाइयाँ स्वीका करें |
बेहद उम्दा ग़ज़ल कही है आदरणीय धामी जी हार्दिक बधाई आपको
इस अभ्यास का अपना महत्व है. वैसे अर्कान ही रोचक है.
बधाई
आदरणीया राजेश बहन, आपकी उपस्थिति से गजल का मान और बढ़ गया । स्नेह बनाए रखें ।
आदरणीया सविता बहन, उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
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