पानी को तलवार से काटते क्यों हो ?
हिन्दी हैं हम सब, हमे बांटते क्यों हो ?
चरखे पे मजहब की पूनी चढ़ा कर के ,
सूत नफरत की यहाँ काटते क्यों हो ?
हो सभी को आईना फिरते दिखाते ,
आईने से खुद मगर भागते क्यों हो ?
गर करोगे प्यार , बदले वही पाओगे,
वास्ता मजहब का दे, मांगते क्यों हो ?
भर लिया है खूब तुमने तिजोरी तो ,
चैन से सो, रातों को जागते क्यों हो ?
दाम कौड़ियों के हो बेचते सच को
रोच परचम झूठ का छापते क्यों हो ?
धर्म और ईमान के गर मुहाफ़िज़ हो
मज़लूमों को फिर भला मारते क्यों हो ?
नीरज कुमार नीर
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव साहब इस हौसला आफजाई के लिए आपका हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ।
बहुत खूबसूरत गजल , हार्दिक बधाई
आदरणीय नीरज जी लाजवााब गजल हार्दिक बधाइ
चरखे पे मजहब की पूनी चढ़ा कर के ,
सूत नफरत की यहाँ काटते क्यों हो ..बहुत बढ़िया ...काटते को कातते कर लीजिये .टाइपिंग एरर है इस सुंदर रचना के लिए तहे दिल बधाई आदरणीय नीरज जी
बहुत ही सुन्दर , आदरणीय नीरज कुमार जी , बधाई।
नीरज जी
बड़ी ही सुन्दर गजल हुयी है
हर शेर बावज्न है i
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