पीर पंचांग में सिर खपाते रहे ।
गीत की जन्मपत्री बनाते रहे ।
हम सितारों की चैखट पे धरना दिये
स्वप्न की राजधानी सजाते रहे ।
लाख प्रतिबंध पहरे बिठाये गये
शब्द अनुभूतियों के सखा ही रहे
आँसुओं को जरूरत रही इसलिये
दर्द के कांधे के अँगरखा ही रहे
श्वास की बाँसुरी बज उठी जब कभी
हम निगाहें उठाते लजाते रहे।।
पर्वतों से मचलती चली आ रही,
गीत गोविन्द मुग्धा नदी गा रही,
पांखुरी-पांखुरी खिल गई रूप की
भोर लहरा रही, चांदनी गा रही,
ये सरित सिंधु तक यौवना जा सके
आस अच्छे दिनों की लगाते रहे ।
धूप खिलती रही, सांझ ढलती रही
उम्र पर लीक ही लीक चलती रही
पनघटों की जगह लग गये कल मगर
रार पनिहारिनों बीच पलती रही
जान ही ना पड़ा बाल कब पक गये
बेखबर बैल हल में मचाते रहे।
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
धन्यवाद लड़ीवाला जी !
धन्यवाद आकुल जी !
स्वपन की राजधानी में सजे सुंदर शब्द चित्र का ताने बाने से बुनी सुंदर गीत रचना के लिए हार्दिक बधाई श्री सुलभ अग्निहोत्री जी
धूप खिलती रही, सांझ ढलती रही
उम्र पर लीक ही लीक चलती रही
पनघटों की जगह लग गये कल मगर
रार पनिहारिनों बीच पलती रही
सुंदर वर्णन। नवगीत सा लगता है गीत। साधुवाद।
हार्दिक आभार ‘राम शिरोमणि पाठक’ जी
धन्यवाद! आदरणीय गोपाल नारायण जी ! शायद मचाना शब्द आपको अटपटा लग रहा होगा। दरअसल हमारी तरफ बैल या किसी भी अन्य जानवर को हल या इक्के या बैलगाड़ी आदि में जोतने के लिये मचाना क्रिया का प्रयोग किया जाता है। एक प्रयोग देखें - जिन्दगी भर गृहस्थी की गाड़ी में बैल जैसे मचे रहे।
सुलभ जी
बहुत ही सुन्दर गीत रचना की आपने i यह आपकी संवेदना का परिचायक है i पर अंत में -बेखबर बैल हल में मचाते रहे i यह कुछ अटपटा लगा i
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