२१२२ २१२२ २१२२
ख्वाब जब दिल में हसीं पलने लगे है
अजनबी दो साथ में चलने लगे हैं
इश्क कोई अनबुझी सी है पहेली
जब हुआ सावन में तन जलने लगे हैं
वक़्त के अंदाज बदले यूं समझ लो
हुश्न आते पल्लू भी ढलने लगे हैं
आप के शानो पे सर रखते कसम से
लम्हे मेरी मौत के टलने लगे हैं
जिस घड़ी ओंठो को गुल के चूम बैठा
उस घड़ी से भौरों को खलने लगे हैं
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आपका संशोधन दुरुस्त है आरदरणीय।
गुदगुदाती हुई रचना! बधाई!
आदरणीय गिरिराज भाई साब शकील जी की बातों पर ध्यान दे ते हुए कुछ संसोधन कर रहा हूँ ...फिर भी कोई गलती है तो बताने का कष्ट करें सादर
आदरणीय शकील जी ..इता दोष के मामले में अक्सर गलती होती है ...कुछ शेर हटा कर सुधार करने की कोशिस कर रहा हूँ यदि फिर भी कोए गलती हो तो बताने का कष्ट करें सादर
आदरणीय आशुतोष भाई , आ. शकील भाई की बात सही है , काफिया दोष पूर्ण है सुधार लीजिएगा | ग़ज़ल के प्रयास के लिए दिली बधाइयाँ |
आदरणीय डाक्टर साहब,
आपने मतले में रहने और डरने को काफिया चुना है। ये शब्द समतुकांत नहीं है, बल्कि समतुकांत होने का भ्रम पैदा कर रहे हैं। काफिया होने की एक शर्त ये भी है कि उसका हर्फे रवी समान हो। परंतु यहां ऐसा नहीं है। मूल शब्द 'डर' और 'रह' समतुकांत नहीं है। इस ईता का दोष कहते हैं। चूंकि मतले का काफिया ही दोषपूर्ण है, इसलिए आपको अपनी गजल पर नए सिरे से विचार करना पड़ेगा।
हालांकि हुस्ने मतला में आपने काफिया सही चुना है, लेकिन शेष अशआर के काफिए दोषपूर्ण हैं।
सादर।
बहुत सुंदर गजल! बधाई आपको
आशू जी
मुझे अपनी एक पुरानी कविता याद आ गई -
प्रेम है कोई पहेली या समस्या i
और जीवन भी भागीरथ की तपस्या
स्नेह से सिचित अवनि आकाश साथी
नहीं आता प्यार सबको रास साथी i
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