गीत
-लो बरखा फिर आई-
बादल की झोली में भरकर
बिखराती जल लाई।
सुप्त प्राण में प्राण सींचने
लो बरखा फिर आई।
सूखे विटप तृप्त तन्मय अब
करते झुक अभिनन्दन।
झूम झूम उत्साहित हों ज्यों
गीत गा रहे वन्दन।
उष्ण अनल से तपे ग्रीष्म की
अब तो हुई बिदाई।...सुप्त प्राण....
तप्त दिवाकर ने झुलसाया
वन उपवन सब सूखे।
दरक रहा धरती का सीना
बिन तृण के सब भूखे।
मदमाते रिमझिम सावन ने
जग की पीर मिटाई।...सुप्त प्राण
छन छन बूँदें तप्त धरा पर
गिर गिर जब इठलाती।
पुलकित धरती हो विभोर तब
रूप सजा इतराती।
सौंधी सी खुशबू मिट्टी की
साँसों बीच समाई।
सुप्त प्राण में प्राण सींचने
लो बरखा फिर आई।....सीमा हरि शर्मा 18.09.2014
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
सुन्दर गीत..बरसात का सुस्वागत करता और ग्रीष्म से त्राण देता ..
सूखे विटप तृप्त तन्मय अब
करते झुक अभिनन्दन।
झूम झूम उत्साहित हों ज्यों
गीत गा रहे वन्दन।
उष्ण अनल से तपे ग्रीष्म की
अब तो हुई बिदाई।...सुप्त प्राण....बधाई
महनीया
बहुत सुन्दर i त्रण को तृण करले बस i ह्रदय में ऋतु मानो साक्षात् उतर आया i
छन छन बूँदें तप्त धरा पर
गिर गिर जब इठलाती।
पुलकित धरती हो विभोर तब
रूप सजा इतराती।
सौंधी सी खुशबू मिट्टी की
साँसों बीच समाई।
सुप्त प्राण में प्राण सींचने
लो बरखा फिर आई।....
छन छन बूँदें तप्त धरा पर
गिर गिर जब इठलाती।
पुलकित धरती हो विभोर तब
रूप सजा इतराती।
सौंधी सी खुशबू मिट्टी की
साँसों बीच समाई।
सुप्त प्राण में प्राण सींचने
लो बरखा फिर आई।...........बहुत सुंदर, सजीव सा वर्णन. बधाई आदरणीया सीमा जी
बहुत सुन्दर
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