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दिल के आँसू पे यों फ़ातिहा पढ़ना क्या वो न बहते कभी वो न दिखते कभी
तर्जुमा उनकी आहों का आसाँ नहीं आँख की कोर से क्या गुज़रते कभी |
खैरमक्दम से दुनिया भरी है बहुत आदमी भीड़ में कितना तनहा मगर
रोज़े-बद की हिकायत बयाँ करना क्या लफ़्ज़ लब से न उसके निकलते कभी |
बात गर शक्ल की मशविरे मुख्तलिफ़ दिल के रुख़सार का आईना है कहाँ
चोट बाहर से गुम दिल के भीतर छिपे चलते ख़ंजर हैं उसपे न रुकते कभी |
जिस्म का ज़ख्म भर दे ज़माना मगर ज़ख्म दिल का कभी भी है भरता नहीं
रूह के साथ जाते हैं ज़ख्मेज़िगर सफ्हए-ज़ीस्त से वो न मिटते कभी |
आँसुओं की लड़ी टूट जाने पे भी जो गए याद उनकी है जाती नहीं
याद जलती है सीने में जब बाफ़ज़ा रातें होती नहीं दिन न ढलते कभी |
दर्द ऐसी जगह जो परीशानकुन दिल के दरम्यान ही घर बनाता कहीं
वक्त की चादरों से ढका बेतरह पर ख़लिश से दिलोदम न बचते कभी |
--- संतलाल करुण
(मौलिक व अप्रकाशित)
शब्दार्थ :
सफ्हए-ज़ीस्त = जीवन-पृष्ठ
बाफ़ज़ा = वातावरण पाने पर, माहौल के साथ, खुलापन मिलने पर
Comment
आदरणीय भंडारी जी,
ग़ज़ल पर आप के प्रशंसा भर उद्गार के लिए सहृदय आभार !
आदरणीय हरिवल्लभ शर्मा जी,
ग़ज़ल पर आप की प्रतिक्रिया से अभिभूत हुआ, सहृदय आभार !
आदरणीय खैरादी जी,
ग़ज़ल की प्रशंसात्मक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार !
आदरणीय चौहान जी,
ग़ज़ल की तारीफ़ के लिए हार्दिक आभार !
आदरणीय डॉ. विजय शंकर जी,
ग़ज़ल की सराहना भरी प्रतिक्रिया लिए हार्दिक आभार !
आदरणीय संत लाल भाई , आठ -आठ रुक्न में ग़ज़ल कहना आसान काम नहीं है , आपको बढ़िया ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई |
दिल के आँसू पे यों फ़ातिहा पढ़ना क्या वो न बहते कभी वो न दिखते कभी
तर्जुमा उनकी आहों का आसाँ नहीं आँख की कोर से क्या गुज़रते कभी -- बहुत खूब आदरणीय |
दर्द ऐसी जगह जो परीशानकुन दिल के दरम्यान ही घर बनाता कहीं
वक्त की चादरों से ढका बेतरह पर ख़लिश से दिलोदम न बचते कभी |..बहुत सुन्दर ग़ज़ल आदरणीय ...बहुत बहुत बधाई आपको.
बात गर शक्ल की मशविरे मुख्तलिफ़ दिल के रुख़सार का आईना है कहाँ
चोट बाहर से गुम दिल के भीतर छिपे चलते ख़ंजर हैं उसपे न रुकते कभी |
आदरणीय करुण साहब ,उम्दा ग़ज़ल हुई है |ढेरों दाद कबूल फरमाएं |सादर
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