"वाह वाह !! क्या लिखते हैं साहब, एक बार किताब छपने तो दीजिये, देखिये कैसे लोग हाथो हाथ उठा लेते हैं I"
(मौलिक व अप्रकाशित)
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Comment
आखरी पंक्ति लाजवाब हुई है आदरणीय गणेश बागी सर | हार्दिक बधाई |
बधाई सर, इस पंक्ति पर नमन....
"झाड़ू लगाते समय पत्नी का भुनभुनाना अब रोज की बात हो गयी"
"झाड़ू लगाते समय पत्नी का भुनभुनाना अब रोज की बात हो गयी" .. इस पंक्ति की सान्द्रता चकित कर रही है !
शब्द-तपस्वियों को आजकी व्यावसायिकता की ऊमस में जैसे अनुभव हो रहे हैं, इस व्यावसायिकता के कारण जिसतरह से शब्द-तपस्या को ही अक्सर दोयम दर्ज़े का कर्म समझा जाने लगा है, अधकचरी ’तपस्या’ को शातिराना ढंग से जिसतरह से हवा उड़ायी जाती है, या, ’अनुभव हेतु प्रोत्साहन’ के नाम व्यावसायिक षडयंत्र के तहत जिसतरह से अति उत्साही शब्द-तपस्वियों को बहकाया जाता है, ऐसे प्रत्येक विन्दु को इंगित करती हुई यह लघुकथा अत्यंत समीचीन बन पड़ी है.
इस प्रस्तुति के लिए, गणेश भाई, आपको बार-बार बधाइयाँ तथा हार्दिक शुभकामनाएँ.
बहुत बढ़िया लघुकथा आदरणीय
//यूँ तो हम सभी में, उस रब की ही छवि है,
जो दर्द बाँट ले, वही तो कवि है ।//
क्या कहने आदरणीय नील्स शर्मा जी, बहुत बढ़िया, इन खूबसूरत पक्तियों के माध्यम से आपने रचना और रचनाकार दोनों को सम्मान दिया, इसके लिए मैं आभारी हूँ, सादर।
आपके कहे से सहमत हूँ आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी, लघुकथा पर आपकी सराहना प्रोत्साहित करती है, बहुत बहुत आभार, स्नेह बना रहे आदरणीय।
आदरणीय डॉ आशुतोष मिश्रा जी, लघुकथा पर आपकी उपस्थिति प्रोत्साहित कर गयी, बहुत बहुत आभार।
वाह ,शीर्षक का जिक्र भी नहीं और इससे उम्दा शीर्षक भी नहीं !'
कमाल की कारीगरी !
बधाई सर ,बहुत अच्छी लघुकथा है !
अच्छी लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई, आदरणीय गणेश जी।
ठक से लगी लघुकथा ......बहुत सुन्दर ..बधाई आप को | सादर
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