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आदरणीय छाया शुक्ला जी ,आपने रचना के दार्शनिक भाव को स्वीकार किया , आभार.
आपकी सद्भावनाओं के लिए सादर धन्यवाद।
आदरणीय डॉo प्राची सिंह जी , असत्य से लिपटे रहने और अपने भ्रम को स्थापित करने के प्रयासों से तो यही अच्छा है कि जो प्रिय एवं इच्छित उसे ही लोग साकार करने में लोग लगें . आपने रचना के दार्शनिक भाव को स्वीकार किया। आभार।
बधाई के लिए ह्रदय से धन्यवाद।
आदरणीय खुर्शीद खैरादी जी ,आपने रचना के दार्शनिक भाव को स्वीकार किया , आभार.
आपकी सद्भावनाओं के लिए सादर धन्यवाद।
रचना को स्वीकार करने एवं पसंद करने के लिये आभार आदरणीय आलोक मित्तल जी.
प्रशस्ति के लिए सादर धन्यवाद।
बहुत सुंदर रचना है आपकी डॉ. विजय जी ...
कोई सच प्रिय है
कोई सच अप्रिय है
कोई कोई तो कटु है |
सच तो सच है ॥
सच है, इसीलिये तो सच है |
और इसीलिये तो, है ॥..........बहुत सुंदर
आदरणीय डॉ० विजय शंकर
प्रिय को ही सत्य बना लेने के रहस्य को जान पाने की जुगुप्सा के चलते सत्य और असत्य को विवेचित करने का एक दार्शनिक प्रयास हुआ है
हार्दिक बधाई
क्यों नहीं हम प्रिय को सत्य कर लेते हैं ,
प्रिय को हम सत्य क्यों नहीं कर लेते हैं
आदरणीय विजयशंकर जी ,अच्छी दार्शनिक रचना हुई है |सादर अभिनन्दन
दार्शनिक भाव खूब मंथन के साथ कथ्य को प्रमाणित किया है अपने "सुनिए सबकी करिये मन की याद दिला गया " साधुवाद आपको आ. विजय शंकर जी सादर नमन !
निसंदेह , आपको धन्यवाद , आपने उस गहराई तक जाने का समय दिया और रचना के मूल भाव को स्वीकार किया। आभार।
आपकी बधाई के लिए ह्रदय से धन्यवाद आदरणीय सुशील सरना जी।
झूठ और सत्य के दार्शनिक भावों को आपने बड़ी ख़ूबसूरती से इस रचना में चित्रित किया है। पाठक रचना की गहराई तक स्वयं को ले जाने की चेष्टा करता है यही इसकी सफलता है। हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय डॉ विजय शंकर जी।
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