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खुशनसीब (लघुकथा)

दोनो बचपन की सहेलियाँ शादी होने के बहुत दिनो बाद मिली थीं. सारे दुःख-दर्द बाँटे जा रहे थे.
"मैं बहुत खुशकिस्मत हूँ जो उनके जाने के बाद मुझे रोहन जैसे पति का साथ मिला जो हरपल मेरा ख्याल रखता है." पहली सहेली के चेहरे पर मुस्कान थी।.
"एक पति मेरा है, आधी रात के बाद पी के आता है, और मार-पीट के सो जाता है, ये दारु उसे कहीं ले भी तो नही जाती.
दूसरी की आँखों से बरबस ही आँसू छलक पड़े!

"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 7, 2014 at 7:18pm

पवन कुमार जी

पहली बार मैं देख रहा हूँ  कि ओ बी ओ के तीन दिग्गज मिलकर किसी की लघु -कथा का अनुमोदन कर रहे हैं i यह आपके लिये  बड़ी सुखद स्थिति है i  पर इसे कायम भी रखना आपकी जिम्मेदारी है i अब मेरी टिप्पणी की आवश्यकता भी  नहीं है i सस्नेह .i


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 7, 2014 at 12:48pm

भाई पवन कुमारजी, आपकी लघुकथाओं में गहनता व्यापने लगी है. यह एक सकारात्मक और श्लाघनीय स्थिति है.
कथा का पंच लाइन विवशता की पराकाष्ठा को बताता है. जो कुछ यह लघुकथा कहना चाहती है वह मुखर हो कर संप्रेषित हुआ है.  

वैसे, आगे, मेरा यह भी मानना है कि लघुकथा में लघुकथाओं के महत्त्वपूर्ण अवयवों में से एक कथात्मकता अवश्य हो. आपकी इस प्रस्तुति में यह वर्तमान है. लेकिन कथात्मकता होने और नहीं होने के बीच बहुत महीन रेख हुआ करती है.
इस कथा के लिए हार्दिक बधाई.


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on November 7, 2014 at 12:24pm
"ये दारु उसे कहीं ले भी तो नही जाती।"
यह पंक्ति उस पीड़ित महिला की पूरी मनोस्थिति ब्यान कर रही है, बधाई स्वीकारें।

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on November 7, 2014 at 10:45am

इस लघुकथा में और बढ़िया काम किया जा सकता था, बहरहाल इस प्रस्तुति पर बधाई।

कृपया ध्यान दे...

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