दोनो बचपन की सहेलियाँ शादी होने के बहुत दिनो बाद मिली थीं. सारे दुःख-दर्द बाँटे जा रहे थे.
"मैं बहुत खुशकिस्मत हूँ जो उनके जाने के बाद मुझे रोहन जैसे पति का साथ मिला जो हरपल मेरा ख्याल रखता है." पहली सहेली के चेहरे पर मुस्कान थी।.
"एक पति मेरा है, आधी रात के बाद पी के आता है, और मार-पीट के सो जाता है, ये दारु उसे कहीं ले भी तो नही जाती.
दूसरी की आँखों से बरबस ही आँसू छलक पड़े!
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
पवन कुमार जी
पहली बार मैं देख रहा हूँ कि ओ बी ओ के तीन दिग्गज मिलकर किसी की लघु -कथा का अनुमोदन कर रहे हैं i यह आपके लिये बड़ी सुखद स्थिति है i पर इसे कायम भी रखना आपकी जिम्मेदारी है i अब मेरी टिप्पणी की आवश्यकता भी नहीं है i सस्नेह .i
भाई पवन कुमारजी, आपकी लघुकथाओं में गहनता व्यापने लगी है. यह एक सकारात्मक और श्लाघनीय स्थिति है.
कथा का पंच लाइन विवशता की पराकाष्ठा को बताता है. जो कुछ यह लघुकथा कहना चाहती है वह मुखर हो कर संप्रेषित हुआ है.
वैसे, आगे, मेरा यह भी मानना है कि लघुकथा में लघुकथाओं के महत्त्वपूर्ण अवयवों में से एक कथात्मकता अवश्य हो. आपकी इस प्रस्तुति में यह वर्तमान है. लेकिन कथात्मकता होने और नहीं होने के बीच बहुत महीन रेख हुआ करती है.
इस कथा के लिए हार्दिक बधाई.
इस लघुकथा में और बढ़िया काम किया जा सकता था, बहरहाल इस प्रस्तुति पर बधाई।
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