करें कैसे भरोसा जिन्दगी का !
नहीं है आदमी जब आदमी का !!
नहीं फिर लूट पाता वो हमें भी !
वहाँ पर साथ होता गर किसी का !!
करे वो प्यार भी तो पागलो सा !
मगर ये खेल लगता दिल्लगी का
नहीं करता अगर हम को इशारे !
न होता सामना नाराजगी का !!
इबादत से डरे क्यों हम खुदा की !
मिले है रास्ता जब बंदगी का !!
अगर अपना समझ कर साथ में हो
भरोसा तो करो फिर दोस्ती का !!
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मौलिक व अप्रकाशित
Comment
बहुत खूबसूरत मतला आ० आलोक मित्तल जी
आदरणीया राजेश जी ने जिस शेर पर अपनी बात कही है, उसमें मेरी भी उनसे सहमती है
हार्दिक बधाई इस प्रस्तुति पर
आदरणीय आलोक भाई , खूबसूरत गज़ल के लिये खूब सारी बधाइयाँ ।
अच्छी गज़ल के लिए बधाई, आ० आलोक जी।
वाह बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल ,मतला बहुत प्रभाव शाली है
एक संशय है इस शेर में ---
इबादत से डरे क्यों हम खुदा की !
मिले है रास्ता जब बंदगी का !!----- मिले है ----होना चाहिए या मिला है ---मिले है जैसे शब्द हम अक्सर बोलचाल में कह तो जाते हैं किन्तु व्याकरण के हिसाब से तो मिलता है होता है ...यदि मिला है लिखें तो भी ये संशय समाप्त हो जाता है बाकि आप जैसा ठीक समझें ....वैसे शेर बहुत उत्कृष्ट है
आपको बहुत-बहुत बधाई आलोक जी इस खूबसूरत ग़ज़ल के लिए|
आद. योगराज प्रभाकर जी .....शुक्रिया आपका ..उसे दूर कर लूँगा ..ध्यान दिलाने का आपका आभार ..कृपया अपने सुझाव देते रहिएगा
आद. जितेन्द्र पस्टारिया जी...........आपका दिल से आभार ...आपने अपना समय दिया
आद. gumnaam pithoragarhi जी.....सादर आभार आपका आपने ग़ज़ल को समय दिया
आद. ram shiromani pathak जी....आपका बहुत बहुत आभार ...
ग़ज़ल ठीक है लेकिन चौथे शेअर में तक़ाबुल-ए-रदीफैन का दोष है, इसे दूर करने का प्रयास करें।
आदरणीय Er. Ganesh Jee "Bagi" जी...आपका सादर आभार
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