लम्हा महकता … एक रचना
सोया करते थे कभी जो रख के सर मेरे शानों पर
गिरा दिया क्यों आज पर्दा घर के रोशनदानों पर
तपती राहों पर चले थे जो बन के हमसाया कभी
जाने कहाँ वो खो गए ढलती साँझ के दालानों पर
होती न थी रुखसत कभी जिस नज़र से ये नज़र
लगा के मेहंदी सज गए वो गैरों के गुलदानों पर
कैसा मैख़ाना था यारो हम रिन्द जिसके बन गए
छोड़ आये हम निशाँ जिस मैखाने के पैमानों पर
देख कर दीवानगी हमारी कायनात भी हैरान है
किसको तकते हैं भला हम तन्हा आसमानों पर
देखना मुड़ मुड़ के हमको उस गली के छोर तक
ज़िंदा है वो लम्हा महकता दिल के अरमानों पर
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय MUKESH SRIVASTAVA जी आपकी मधुर प्रतिक्रिया का हार्दिक आभार।
baut sundar mitra - dheron daad aur bahut bahut badhaaee
आदरणीय Hari Prakash Dubey जी आपकी मधुर प्रतिक्रिया का हार्दिक आभार।
आदरणीय Shyam Narain Verma जी आपकी मधुर प्रतिक्रिया का हार्दिक आभार।
सुन्दर प्रस्तुति आदरणीय सुशील सरना जी,आपको ह्रदय से बधाई ।
बहुत खूब ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, गजल पर आपको दिल से बधाई |
आदरणीया योगराज प्रभाकर जी आपकी ऊर्जावान स्नेहिल प्रशंसा का हार्दिक आभार।
आदरणीया पूजा जी आपकी स्नेहिल प्रशंसा का हार्दिक आभार।
आदरणीय सोमेश जी आपकी मधुर प्रतिक्रिया का हार्दिक आभार।
आदरणीय डॉ गोपाल नरायन श्रीवास्तव जी आपकी ऊर्जावान प्रतिक्रिया का हार्दिक आभार।
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