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मुद्दतों से पलक बन्द करके चला हूँ
मैं समन्दर को आँखों में भरके चला हूँ
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जा बसा पत्थरों में हुआ वो भी पत्थर
मैं फकीरों के जैसे बे-घरके चला हूँ
....
कैसे कहदूँ मेरे यार को बेव़फा मैं
जिसकी तस्वीर को दिल में धरके चला हूँ
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ले गया वो मेरी साँस भी साथ अपने
जिन्दगी भर बिना साँस मरके चला हूँ
....
ले न जाये छुड़ाके कहीं याद अपनी
इसलिये उम्र भर ही मैं ड़रके चला हूँ
....
मौलिक व अप्रकाशित
उमेश कटारा
Comment
Rahul Dangi जी शुक्रिया
शुक्रिया आदरणीय गिरिराज भंडारी जी
आदरणीय उमेश भाई ,बहुत अच्छी गज़ल कही है , बधाई स्वीकार करें ।
शुक्रिया योगराज प्रभाकर जी
बहुत खूब आ० उमेश कटारा जी इस सुन्दर ग़ज़ल के लिए बधाई स्वीकारें।
शुक्रिया ramshiromani pathak ji
शुक्रिया laxman dhami ji
शुक्रिया राजेश कुमारी जी
शुक्रिया मीना पाठक जी
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