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ग़ज़ल-----मैं समन्दर को आँखों में भरके चला हूँ

212 212 212 2122
-------------------------------------------
मुद्दतों से पलक बन्द करके चला हूँ
मैं समन्दर को आँखों में भरके चला हूँ
....
जा बसा पत्थरों में हुआ वो भी पत्थर
मैं फकीरों के जैसे बे-घरके चला हूँ
....
कैसे कहदूँ मेरे यार को बेव़फा मैं
जिसकी तस्वीर को दिल में धरके चला हूँ
....
ले गया वो मेरी साँस भी साथ अपने
जिन्दगी भर बिना साँस मरके चला हूँ
....
ले न जाये छुड़ाके कहीं याद अपनी
इसलिये उम्र भर ही मैं ड़रके चला हूँ
....

मौलिक व अप्रकाशित
उमेश कटारा

Views: 637

Comment

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Comment by umesh katara on November 27, 2014 at 8:50am

Alok Mittal जी शुक्रिया आपका

Comment by umesh katara on November 27, 2014 at 8:50am

somesh kumar जी शक्रिया आपका

Comment by umesh katara on November 27, 2014 at 8:49am

 Hari Prakash Dubeyजी आपका आभार

Comment by umesh katara on November 27, 2014 at 8:48am

शुक्रिya shyam Narain Verma ji या 

Comment by Shyam Narain Verma on November 26, 2014 at 9:54am

बहुत खूब ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, गजल पर आपको दिल से बधाई

Comment by Hari Prakash Dubey on November 26, 2014 at 2:11am

आदरणीय उमेश जी,हार्दिक बधाई

Comment by somesh kumar on November 25, 2014 at 7:29pm

मुद्दतों से पलक बन्द करके चला हूँ
मैं समन्दर को आँखों में भरके चला हूँ|

पहला और तीसरा से'र ज़्यादा पसंद आया ,वैसे सारी गज़ल ही भावनाओं का सागर बन के उमड़  पड़ी है |
....

Comment by Alok Mittal on November 25, 2014 at 6:08pm

बहुत सुंदर ग़ज़ल लिखी है आपने आद उमेश जी ....बहुत बधाई आपको

Comment by Meena Pathak on November 25, 2014 at 4:00pm

बहुत सुन्दर गज़ल हुई आ० उमेश जी ..बधाई 

Comment by ram shiromani pathak on November 25, 2014 at 12:13pm
ज़ोरदार कहन आदरणीय उमेश जी।।हार्दिक बधाई आपको

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