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मुद्दतों से पलक बन्द करके चला हूँ
मैं समन्दर को आँखों में भरके चला हूँ
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जा बसा पत्थरों में हुआ वो भी पत्थर
मैं फकीरों के जैसे बे-घरके चला हूँ
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कैसे कहदूँ मेरे यार को बेव़फा मैं
जिसकी तस्वीर को दिल में धरके चला हूँ
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ले गया वो मेरी साँस भी साथ अपने
जिन्दगी भर बिना साँस मरके चला हूँ
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ले न जाये छुड़ाके कहीं याद अपनी
इसलिये उम्र भर ही मैं ड़रके चला हूँ
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मौलिक व अप्रकाशित
उमेश कटारा
Comment
Alok Mittal जी शुक्रिया आपका
somesh kumar जी शक्रिया आपका
Hari Prakash Dubeyजी आपका आभार
शुक्रिya shyam Narain Verma ji या
बहुत खूब ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, गजल पर आपको दिल से बधाई |
आदरणीय उमेश जी,हार्दिक बधाई
मुद्दतों से पलक बन्द करके चला हूँ
मैं समन्दर को आँखों में भरके चला हूँ|
पहला और तीसरा से'र ज़्यादा पसंद आया ,वैसे सारी गज़ल ही भावनाओं का सागर बन के उमड़ पड़ी है |
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बहुत सुंदर ग़ज़ल लिखी है आपने आद उमेश जी ....बहुत बधाई आपको
बहुत सुन्दर गज़ल हुई आ० उमेश जी ..बधाई
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