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ग़ज़ल: लौ मचलती रही.

साँस चलती रही, आस पलती रही.

रात ढलने तलक, लौ मचलती रही.

 

वादियों में दिखी, ओस-बूँदें सहर,

चाँदनी रात भर, आँख मलती रही.

 

कुछ हसीं चाहतों की तमन्ना लिए,

जिन्दगी आँसुओं से बहलती रही.

 

मैं समझता हुयी उम्र पूरी मगर,

मौत जाने किधर को टहलती रही.

 

इक उगा था कभी चाँद मेरे फ़लक,

जुगनुओं को यही बात खलती रही.

 

वो सुनी थी कभी बांसुरी की सदा,

ज़िंदगी रागनी में बदलती रही.

 

मैं अकेला समझ दूर चलता गया,

याद उसकी मगर साथ चलती रही.

 

तेल सारा जला जा रहा दीप का,

उम्र बाती लगातार जलती रही.

 

मौसमी धूप थी सूर्य तपता रहा,

हिमशिला देह कतरों पिघलती रही.

.

 **हरिवल्लभ शर्मा दि. 26.11.2014

 (रचना मौलिक स्वरचित एवं अप्रकाशित है)

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Comment

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Comment by somesh kumar on November 26, 2014 at 8:08pm

इक उगा था कभी चाँद मेरे फ़लक,

जुगनुओं को यही बात खलती रही.

 

वो सुनी थी कभी बांसुरी की सदा,

ज़िंदगी रागनी में बदलती रही.

 

मैं अकेला समझ दूर चलता गया,

याद उसकी मगर साथ चलती रही.

इन लाइनों ने अधिक प्रभावित किया |

शायद जो हम जीते हैं वैसा पढ़ने को मिल जाए तो वो अपना ही सच लगता है |भावपूर्ण गज़ल के लिए बधाई

 


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Comment by rajesh kumari on November 26, 2014 at 8:07pm

सुन्दर मतले के साथ एक शानदार पेशकश 

ये अशआर तो बहुत ख़ास हैं 

मैं समझता हुयी उम्र पूरी मगर,

मौत जाने किधर को टहलती रही.

 

इक उगा था कभी चाँद मेरे फ़लक,

जुगनुओं को यही बात खलती रही.---क्या कहने 

बहुत बहुत बधाई आपको आ० हरिवल्लभ शर्मा जी .

 

Comment by maharshi tripathi on November 26, 2014 at 6:36pm

बहुत ही खूबसूरत गजल ,आदरणीय शर्मा जी |

कृपया ध्यान दे...

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