सहेजना
बिखराव में समझ आता है
सहेजे का मोल
मनचाही चीज़ जब
आसानी से नहीं मिलती तो
याद आती है माँ/पत्नी//बहन
सुबह-सुबह खाना पकाती
सेकेण्ड-सुई से रेस लगाती
हर पुकार पे प्रकट हो जाती
मुराद पूर्ण कर फिर जाती
कितना आसान बना देती है
ज़िन्दगी को,माँ/पत्नी/बहन
सहेजना एक कौशल है
पर रोज़-रोज़ एक जैसे
को सहेजना बिना आपा खोये
समर्पण है प्यार है त्याग है
औरतें रोज़ इन्हें सहेजती हैं
और एक घर-घर बना रहता है |
सोमेश कुमार (मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
सत्य कथन ! आदरणीय औरत से ही चार दीवार से घिरा स्थान घर कहलाने लगता है ! दिली बधाइयाँ रचना के लिये !
वाह भाई बहुत ही सुन्दर भावाभिव्यक्ति //बधाई आपको
बिखराव में समझ आता है
सहेजे का मोल....सुन्दर एवं सत्य जीवन दर्शन ,हार्दिक बधाई सोमेश जी !
शुक्रिया !अपनी अनुभवी दृष्टी से रचना को स्वीकर करने हेतु ,आप दोनों गुरु-मित्रों का
सुन्दर अभिव्यक्ति i नारी के विविध रूपो का कल्याणकारी चित्रण i
बिलकुल सही, सहेजना , सजाना, परोसना, आदि कार्य घर की महिलाएं, माँ बहन, पत्नी, गृहिणी बखूबी करती हैं...
उत्साहवर्धन के लिए शुक्रिया भाई जी
सोमेश जी, बिलकुल यथार्थ बात कही है, घर को घर नारी ही बनाती है वरना दीवारों और छत से ढका स्ट्रक्चर तो गोदाम भी होता है। बधाई इस रचना पर।
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