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मरघट का जिन्न (कहानी)

दो मित्र थे, |शेरबहादुर और श्रवणकुमार | नाम के अनुसार शेरबहादुर बहुत वीर और निर्भीक थे ,अन्धविश्वास से अछूते ,बिना विश्लेषण किसी घटना पर यकीन नहीं करते |दुसरे शब्दों में पुरे जासूस थे |बाल की खाल निकालना और अपनी और दूसरों की फजीहत करना उनका शगल था |श्रवणकुमार नाम के अनुसार सुनने की विशेष योग्यता रखते थे |एक तरह से पत्रकार थे ,मजाल है गाँव की कोई कानाफूसी उनके कानों से गुजरे बिना आगे बढ़ जाए |तीन में तेरह जोड़ना उनकी आदत थी इसलिए नारदमुनि का उपनाम उन्हें मिला हुआ था |पक्के अन्धविश्वासी और डरपोक थे |भूत-प्रेतों में उनकों पूरा विश्वास था |

एक रोज़ तलाब के किनारे दोनों दोस्त बैठे थे |तालाब से कुछ दुरी पर गाँव का मरघट था |

“ पता है शेरा ! इस मरघट पे रात में भूत-चुड़ैल विचरते हैं |कल ही धीरुआ खेत में पानी लगाकर लौट रहा था | बताता है की सफ़ेद साड़ी वाली दो मेहरिया खड़ी बात कर रही थीं |इसकों देखीं ती इसी तरफ आने लगीं ,वो तो हनुमानजी का नाम लिया और सरपट दौड़ गया |घर आकर ही रुका |अभी तक ज्वर नहीं गया ,बडबडा रहा है ,ओझा कान में पीपल का बीड़ा डाले तो कबूला है |”
“ चल !ये सब वहम है |हम साइंस पढ़े हैं |ये सब नहीं मानते |मनोरंजन के लिए मनगढंत कहानियाँ ,तू भोला-भाला सबकी बातों में आ जाता है “-शेरबहादुर बोला |

"ऐसा है तो अपनी बात साबित कर "श्रवणकुमार ने चुनौती दी 

“ बता क्या करना है ?”शेरबहादुर जोश में आ गया |

“खूंटा गाड़ना है ,रात को ,मरघट के पुराने पीपल के नीचे और तू बिल्कुल अकेला जाएगा |”

“ मंजूर | पर क्या तू नहीं आएगा ?”

“ मैं यहाँ सिवान पर रामदीन लठैत के साथ रहूँगा |अगर कोई संकट आया तो पुकार लेना |”

“मंजूर !देखना मैं सही साबित होऊंगा |”उसने सीना फुलाते हुए कहा |

शर्त के मुताबिक अर्ध-रात्रि को वो तीनों सीवान पहुँचे |शेरबहादुर हथौड़ा और खूंटा लिए मरघट की तरफ बढ़ा |काली रात थी | आसमान में चमगादड़ रेंग रही थीं और उनके उड़ने से प्रेतों की आकृति प्रतीत होती थी |सियार हुआ-हुआ के गीत से शिकार का स्वागत कर रहे थे |एक ढीठ काला कुत्ता मरघट के पास कुछ खोद रहा था |

“पिशाच लाशें निकाल कर खा जाते है “उसे श्रवणकुमार की बात याद आई और हल्की सी थरथरी हुई |

“नहीं-नहीं ये सब वहम है “उसने खुद को समझाया और साँस सम्भालकर पीपल के नीचे आ गया |

“ठक-ठक-ठक-ठक” ये गड़ा खूंटा |उन्होंने माथे का पसीना पोंछा ,हथौड़ा एक तरफ फैंका और विजय-सुचना में टार्च को जलाया-बुझाया |हथौड़ा उठाकर चलने को हुए कि –‘अरे मेरी धोती ,छोड़-छोड़ ,कौन है ?” तभी हवा का तेज़ झोंका आया |पीपल की पत्तियां सरसराने लगी |उस पर रहने वाले कुछ परिंदे चीख उठे |पीछे मुड़कर देखने की हिम्मत उन्हें  नहीं हुई |थरथर कांपने लगे| टार्च हाथ से छुटकर गिर गई |

“अरे बचाओं रे !बचाओं रे ! चिल्लाते हुए धोती छोड़कर भागे |बिना धोती के रामदीन को भागता-चिल्लाता देख श्रवणकुमार रामदीन से बोला –“मरघट का कोई जिन्न दौड़ा आ रहा है ,भाग लो |”पूरा गाँव जिन्न की दहशत से जाग उठा |पर रात को किस में  था की जिन्न का सामना करे |

सुबह सारा गाँव लेकर श्रवणकुमार शेरबहादुर के घर पे इकट्ठे हो जाते हैं |

“कैसा था हो ?क्या बड़े-बड़े नाख़ून-दांत थे ?”श्रवणकुमार ने पूछा |

“हम नहीं देखें |उसने धोती पकड़ी और हम छोड़ कर भाग आए |”

“भईया मरघट पे तो एक सफ़ेद धोती पड़ी दिख रही थी |”तालब पर निपंटने गए तो देखा था एक ग्रामीण बोला 

शेरबहादुर और कुछ और लोग पीपल के नीचे पहुँचे| |कुत्ते धोती को फाड़कर ईधर-उधर टुकड़े लेकर भाग रहे थे |तभी सबकी नजर एक बड़े टुकड़े पर गई |उसका एक छोर खूंटे से दबा पड़ा था |टार्च भी वहीं पास में गिरी पड़ी थी |शेरबहादुर छाती उचककर बोले –“देखों श्रवण ,कहता था ना-भूत-प्रेत -जिन्न नहीं होते - - - “

सभी मुँह दबाकर हंसने लगे और शेरबहादुर अपनी मूंछों को मरोड़ने लगे  |  

सोमेश कुमार (मौलिक एवं अप्रकाशित )  

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Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 30, 2014 at 4:43pm

अच्छी  प्रस्तुति  के लिए  बधाई  श्री  सोमेश  कुअमार  जी 

Comment by harivallabh sharma on November 28, 2014 at 11:58pm

प्राचीन कहानी में पात्र कथानक का सामंजस्य उत्तम लगा...उत्तम संवाद भी प्रभावी हैं..अच्छी कहानी हेतु बधाई.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 27, 2014 at 9:22pm

मुझे तो कहानी में बहुत मजा आया ....हार्दिक बधाई 

Comment by somesh kumar on November 27, 2014 at 8:41pm

शुक्रिया ,योगराज सर ,आपके मार्गदर्शन से अवश्य सुधार आएगा शायद थोड़ा वक्त लगे |हरि भाई शुक्रिया ,शुक्रिया जवाहरलाल भाई जी ,मैंने भी ये किस्सा अपने एक सहकर्मी के जरिए सुना था  बस इसे अपनी तरह से कहने की कोशिश की है |

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on November 27, 2014 at 7:00pm

आदरणीय सोमेश कुनार जी, हालाँकि यह कहानी पुरानी है फिर भी अच्छी प्रस्तुति के लिए आपको बधाई !

Comment by Hari Prakash Dubey on November 27, 2014 at 5:33pm

सोमेश कुमार जी,आंचलिक पात्रों का सजीव चित्रण ,सुन्दर ..हार्दिक बधाई


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on November 27, 2014 at 2:32pm

बढ़िया कहानी कही है भाई सोमेश कुमार जी, भाषा एवं शैली पर थोड़ा और ध्यान देने की आवशयकता है। बहरहाल, मेरी हार्दिक बधाई अवश्य स्वीकारें।

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