तेरा दिया जन्म
मुझे स्वीकार नहीं
जन्म स्थान
मुझे स्वीकार नहीं
यह नाम
मुझे स्वीकार नहीं
स्वीकार नहीं मुझे
कर्म करना, और
भाग्य से बंध जाना
मुझे स्वीकार नहीं
स्वीकार नहीं मुझे
तेरे तथा-कतिथ दूतों के
नैतिकता-अनैतिकता के निर्देश
उनके छल भरे उपदेश
तेरे नाम पर रचे, उनके
षडयन्त्र भरे परिवेश
मैं विद्रोही तेरी माया का
आ ,मुझे नरसिंह बनकर
हिरण्यकश्यप की तरह मार दे
या बुद्ध बना कर मुझे
मध्य मार्ग पर उतार दे !!
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय योगराज प्रभाकर सर सबसे पहले विलम्ब से अपनी प्रतिक्रिया के लिए क्षमा, दरअसल कुछ समय से बाहर था, आपके उत्साहवर्धन के लिए आपका हार्दिक आभार !
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी रचना पर आपके स्नेह के लिए शुक्रिया !
आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव सर आपका बहुत बहुत धन्यवाद !
आदरणीय राहुल डांगी जी आपको रचना पसंद आयी,आपका आभार !
आपके ये विद्रोही तेवर अच्छे लगे भाई हरि प्रकाश दुबे जी, वाह !
वाह ! भाई हरि प्रकाश जी , बहुत सुन्दर ! बधाइयाँ ।
आदरणीय
अंतिम चार लाईना ने कविता में चार चाँद लगाये i बुद्ध के मध्यम वर्ग की अवधारणा जो महीयान सम्प्रदाय के रूप में विकसित हुयी उसका आलंबन रचना को विशिष्ट बनाता है i सादर i
श्री नीरज मिश्र जी आपने तो एक लाख बधाई दे कर मेरा रक्त संचार बढ़ा दिया ,आपको भी एक लाख बार धन्यवाद !
सुश्री सीमा तिवारी जी आपकी टिप्पणी ने उत्साह बढ़ा दिया है ,हार्दिक धन्यवाद आपका !
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