जब भी कलम उठाता हूँ
तुम्हे यादों में पाता हूँ
शब्द नहीं मिलते लिखने को
तेरा चित्र बनाता जाता हूँ !!
कितना कुछ है कहने को
जड़ जुबान हो जाता हूँ
अंतर्मन व्याकुल हो जाता है
उलझन में फंस जाता हूँ !!
मैं दबा कुंठित स्वर को
कागज़ की लाशों पर, बस
अक्षर के फूल सजाता हूँ
फिर फाड़ उन्हें जलाता हूँ !!
कैसे करूँ दिल की बाते
जब हुई चार दिन मुलाकातें
मैं कैसे करूँ तुम्हे संबोधन
अभिवयक्ति ढ़ूँढ़ता जाता हूँ !!
कागज़ की लाशों पर, बस
अक्षर के फूल सजाता हूँ !!
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
बहुत भावपूर्ण प्रस्तुति ...हार्दिक बधाई
आओ दुबे जी
यह अद्भुत श्रद्धांजलि i यह क्रिया कर्म i यह अंतिम सस्कार किस वेदना का है मित्र i बहुत बहुत बधाई i
आदरणीय मिथिलेश वामनकर साहब आपका बहुत बहुत धन्यवाद !
सोमेश भाई आपके उत्साहवर्धन के लिए आपका हार्दिक आभार !
आपके उत्साहवर्धन के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय शिज्जु "शकूर" जी !
मैं दबा कुंठित स्वर को
कागज़ की लाशों पर, बस
अक्षर के फूल सजाता हूँ
फिर फाड़ उन्हें जलाता हूँ !!
सुन्दर रचना हार्दिक बधाई आदरणीय हरि प्रकाश दुबे जी
कैसे करूँ दिल की बाते
जब हुई चार दिन मुलाकातें
मैं कैसे करूँ तुम्हे संबोधन
अभिवयक्ति ढ़ूँढ़ता जाता हूँ !!
कागज़ की लाशों पर, बस
अक्षर के फूल सजाता हूँ !!
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति ,बधाई भाई जी
///मैं दबा कुंठित स्वर को
कागज़ की लाशों पर, बस
अक्षर के फूल सजाता हूँ
फिर फाड़ उन्हें जलाता हूँ !!/// वाह मनोभावों को क्या खूब शब्द दिया है आपने बहुत बहुत बधाई इस सुंदर रचना के लिये
///मैं दबा कुंठित स्वर को
कागज़ की लाशों पर, बस
अक्षर के फूल सजाता हूँ
फिर फाड़ उन्हें जलाता हूँ !!/// वाह मनोभावों को क्या खूब शब्द दिया है आपने बहुत बहुत बधाई इस सुंदर रचना के लिये
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