महा-खुदा की अदालत में
खुदा आज रो रहा है
लाख मनाने पर भी वो
चुप नहीं हो रहा है !!
कभी जाता है, सदमें में
कभी जोर से चिल्लाता है
अपनी, अपनों की हत्या में
मैं शामिल हूँ, दुहराता है !!
अव्यक्त था चिर निद्रा में
व्यक्त हुआ ब्रम्हांड रचा है
शुन्य से हुआ अनंत में
सृष्टी का निर्माण किया है !!
अभिव्यक्त हुआ कण-कण में
मनुष्य का निर्माण किया है
इतने सुन्दर गुण डाले उसमें
सर्वोतम का इनाम दिया है !!
समां गया खुद मैं उस में
समग्रता का वरदान दिया है
पर कुछ गलत प्रक्रिया में
कुछ ने ये अंजाम दिया है !!
मेरे नाम की आड़ में
नए खुदा बना रहें हैं
नए- नए ग्रन्थ बनाने में
अपने-अपने पंथ बना रहें हैं !!
फासंकर मुझको नामों में
बहुतों ने बदनाम किया है
युगों युगों से देख रहा मैं
कितना कत्लेआम किया है !!
मनुष्य को बनाना नहीं था
अब तुम संभाल लो मेरे माली
महाखुदा मैंने गलती कर डाली
बस इतना कहकर .............
खुदा ने खुदकुशी कर डाली !!
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
सोमेश भाई रचना पर आपकी प्रतिक्रिया बहुत ही उत्साहवर्धक है ,हार्दिक धन्यवाद आपका !
मिथिलेश जी आपका हार्दिक धन्यवाद !
ह्रदय से आभार, आपने रचना को आशीर्वाद दिया आदरणीया राजेश कुमारी जी !सादर!
सार्थक अभिव्यक्ति ,अदभुत कल्पना,सामयिक विषय ,बस यही है सफल रचनाकार की सफ़लता
मनुष्य को बनाना नहीं था
अब तुम संभाल लो मेरे माली
महाखुदा मैंने गलती कर डाली
बस इतना कहकर .............
खुदा ने खुदकुशी कर डाली !! सुन्दर रचना .... अच्छी प्रस्तुति इस हालात को सटीकता से व्यक्त किया आपकी रचना ने ... बधाई
सामयिक भावों को सटीक शब्द मिले हैं अच्छी अभिव्यक्ति ..बधाई आपको
आदरणीय डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव सर ह्रदय से आभार, आपने रचना को आशीर्वाद दिया ,आपकी प्रतिक्रिया मेरा प्रोत्साहन है सादर प्रणाम !
महा खुदा की अदालत में खुदा ---क्या उर्वर कल्पना है i किस पंख से उड़ते हो मीत i बहुत सुन्दर i
आदरणीय श्री श्याम नारायण वर्मा जी आपका हार्दिक धन्यवाद !
मार्मिक व लाजवाब प्रस्तुति के लिये बहुत बहुत बधाई स्वीकारेँ |
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