आज से 2 साल पहले ज़िन्दगी की सबसे काली रात मेरी प्रतीक्षा कर रही थी |काला नाग अपना फन फैलाए ,घात लगाए बैठा था ,मेरा सब कुछ छीन लेने के लिए |नहीं जानता था की जीवन के सबसे सुंदर सपने का आज अंत हो जाएगा | 12 दिसम्बर 2009 को जब प्रणय-सूत्र में तुमसे बंधा था तो उसी रोज़ से एक सपने में खो गया था |तुम्हारे सपने में |–जैसा की तुम्हारा नाम था –‘सपना | जगती हुई आँखे में तुम और सोते हुए भी बस तुम्हारा ही सपना |अपने नाम के मुताबिक जीवन में कितनी रंगीनिया भर दी तुमने |कहने को तो मैं एक सपने में था ,तुम्हारे जादू में था पर तुमने मुझे असली जीवन में टहलना सिखाया था |3 साल तक ना कोई कविता और ना मन का भटकाव |तुम्हारे होने से म,न की सभी भावनाएं अभिव्यक्ति पा लेती थी ऐसे में कागज पर क्या लिखता ?तुम जीवन की यथार्थ कविता थी और तुम्हारे तन-मन के सौन्दर्य ने ऐसा बांधा कि भटकाव की जगह ही नहीं थी |मुझे गर्व था तुम्हरे सौन्दर्य पर ,तुम्हारे बर्ताव पर ,तुम्हारी निश्छल हंसी पर | तुम्हारा व्यक्तित्व अजीब आकर्षण से भर था |जो तुमसे एक बार मिल लिया वो तुम्हारा होकर रह जाता |
तुम्हारे जाने की खबर जिस-जिसको मिली वो सब स्तब्ध हो गए |चादर बेचने वाला बाबा ,शनिचर दान पाने वाली वो भिखारिन,नानीजी ,अनब्याहे दोस्तों की मम्मियां और ब्याहे दोस्तों की पत्नियाँ ,जब भी मिले तुम्हारा जिक्र आते ही उनकी आँखे पहले भीग गईं| उस रोज़ जो कुछ हुआ अप्रत्याशित था |यूँ तो तुम्हारे मन की निराशा मुझे भी आशंकित करती थी पर विश्वास था की हम साथ-साथ दिल्ली लौटेंगे और तुम स्वस्थ हो जाओगी पर - - - - उस स्त्री को मैं कभी माफ़ नहीं कर सकता जो यमदूत की तरह इस विवाहोत्सव में शामिल हुई और अपने मायाजाल से मेरा सब कुछ तबाह कर दिया | माफ तो मैं तुम्हारे भाई को भी नहीं कर सकता जिसने वासना वसीभूत होकर सच-झूठ को एक कर दिया |उस रोज़ उसने जो अपमान हम दोनों का किया वो माफ करने लायक नहीं हो सकता |पर शायद वो अपमान तुम्हारे लिए असहनीय था |कौन सी ब्याहता स्त्री यह सहने कर पाएगी कि उसके मायके में उसका सबसे प्यारा भाईजिस पर वो सबसे ज़्यादा अभिमान करती है उसका सभी रिश्तेदारों के सामने ऐसा अपमान करेगा वो भी ऐसी स्त्री के लिए जिसका चरित्र जग-जाहिर हो |क्या पता था ये चोट ये अपमान तुम सह नहीं पाओगी|
पर अकेले वे दोषी नहीं हैं |मैं भी हूँ |जिसने खुद से ज़्यादा तुम्हारे मायकेवालों पर यकीन किया |उनकी और तुम्हारी जिद्द के आगे ,तुम्हारी बीमारी को हल्के में लिया और उन पर यकीन कर तुम्हें वहाँ भेज दिया | उस शाम को भी जब इतना कुछ हुआ और तुमनें मेरे घर(गाँव) चलने का आग्रह किया तो तुम्हारे बाकी घर वालों की बात मान और तुम्हारी बीमारी की स्थिति देखते हुए रात में निकलने से मना कर दिया |बिना ये सोचे की तुम पर क्या गुजर रही है?
“हम तेरे शहर में आएं हैं मुसाफ़िर की तरह - - -“गज़ल को सुनते मैं सुबह का इंतजार कर रहा था |मन में ये प्रतिबद्ध लिए की इस चौखट पे अब कभी नहीं लौटना |तुम भी ऐसा ही कह रही थी सबसे रोते हुए| पर तुम्हारे शब्दों की गम्भीरता को मैंने नहीं समझा |
रात को सोते हुए भी तुम्हारी आँखे सावन-भादों बनी रहीं पर मैं जैसे पत्थर हो गया था और बस अपने सम्मान को ठेस लगने के बारे में सोच रहा था
ना तो तुम्हारा माथा सहलाया,ना तुम्हारे दर्द को बाँटा,ना तुम्हारी आँखों में वो विश्वासपूर्वक देखा |दवा देकर दूसरी करवट लेटा और कब आँख लगी पता ही ना चला | रात को 2 बजे तुमने जगा कर पानी माँगा |तुम्हारी माँ को पुकारा,तो तुमने कुछ मीठा भी लाने का आग्रह किया |तुम्हारी माँ से मीठा-पानी लेकर तुम्हें दे दिया और फिर बिना बात किए लेट गया |तुरंत ही नींद आने लगी |अचानक जोर से घरघराहट हुई पर मैंने नींद में अनसुना कर दिया | सुबह उठकर सबके बीच चाय पीने पहुँचा |तुम बिस्तर पर बड़ी तसल्ली से सो रही थी |शायद किसी सपने में खोई |
तुम्हारी बहन चाय लेकर तुम्हारे पास पहुंची |अचानक सारा घर कोहराम से जाग गया |मेरा सपना टूट गया था |शादी की तीसरी सालगिरह से एक हफ़्ते पहले | मुझे फिर भी यकीन था तुम मेरी बनी रहोगी |अपने नाम के मुताबिक मेरे सपनों में सपना बनकर |ऐसा मैंने कई जगह सुना भी था |”मैं” ना सही ”अंश” तो था तुम्हें खींचने के लिए |हमारा 4 माह का बेटा |
पर यहाँ मैंने फिर गलती की |”आत्माएं किसी की नहीं होती - - -“लोगो ने मुझे डरा दिया और मुझे “अंश “की फ़िक्र होने लगी |तुम पर संदेह होने लगा |तुम्हारे भाई ने बड़ी चतुराई से मुझे घाट-पूजा के साथ नारायण-बलि के लिए तैयार कर लिया | उस रोज़ के बाद से तुम मुझे कभी सपने में भी नहीं दिखी |तुम्हारी बहन से शादी के बाद एक दिन मैंने उसे अपनी व्यथा बताई |एक रोज़ तुमने सपने में उसे जवाब दिया – मैं इनसे कभी नहीं मिलना चाहती इन्होनें मेरे साथ बहुत बुरा किया है | मैं नही जानता तुम किस बात से इतनी खफा हो पर इतना जानता हूँ मेरा खुबसुरत सपना हमेशा के लिए टूट चुका है |
सोमेश कुमार
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
4 दिसम्बर 2014
Comment
शुक्रिया सौरभ सर आपकी समीक्षात्मक टिपण्णी से रचनाओं को और अधिक अर्थपूर्ण बनाने में मदद मिलती है ,गिरिराज सर आपके आशीष बिना में कभी आगे नही बढ़ पाता ,इसी प्रकार आपके स्नेह की कामना करता हूँ |
बहुत सुन्दर , मार्मिक संस्मरण , आदरणीय सोमेश भाई , बधाई !
संस्मरण के कथ्य पर अधिक न कहते हुए मैं प्रस्तुति और इसकी शैली पर केन्द्रित होना चाहूँगा. तथ्य यदि रोचक हो तो उसको प्रस्तुत करने का ढंग बतियाता हुआ हो. भले स्वतः से बात करता हुआ. इसका प्रयास हुआ भी है. किन्तु, नवलेखक के प्रयासों का कच्चापन यथानुरूप वर्तमान है. इस संस्मरण (आलेख) को प्रस्तुत करने के पूर्व दो-तीन बार पढ़ लिया गया होता तो संभवतः निहित वाक्य या वाक्यांश अनगढ़ से न हो कर अधिक सधे होते. कथ्य के प्रस्तुतीकरण में भी कसावट हो जाती.
बहरहाल, लेखन के प्रति भाई सोमेश कुमार की ललक और तदनुरूप प्रयास उत्साहित तथा आशान्वित करता है.
शुभेच्छाएँ
अच्छा संस्मरण है भाई सोमेश कुमार जी।
आप सभी का शुक्रिया !कोशिश करूँगा की चारदीवारी के भीतर का भी घटनाक्रम व्यक्त करूं ?पर कब तक ये बताना ,मुशकिल है ,कुछ अपने प्रति भी ईमानदार होना पड़ेगा ,कुछ अपनी गलतियों को भी स्वीकार करना होगा |जिस की कोशिश करूँगा |
ये संस्मरण दिल को छू गया वो पूरी घटना जानने की उत्सुकता है जिसने आपकी पत्नी को इतनी तकलीफ पंहुचाई कि वो दुनिया से तुम्हारी जिन्दगी से ही चली गई हो सके तो इसी संस्मरण में वो कड़ी जोड़ दीजिये संस्मरण को पूर्ण कीजिये
शुभकामनायें
सच कहूँ तो यह संस्मरण और जानने के लिए प्यास बढ़ा गया, ऐसा लगा की बस चाहरदिवारी को देख पाया और उसके अंदर क्या है कुछ नहीं पता । यदि उचित लगे तो कड़ियों में विस्तार दीजिये सोमेश जी ।
आदरणीय जीवन में जो कुछ जिया बस वो भावना के रूप में बाहर आ गए |निश्नदेह 3 साल की ये स्मृतियाँ और उनसे जुड़े अनुभव पहले ही पृष्ठों पर उतार सका हूँ ,वैसे भी लेखक अपने जीवन और अनुभवों को ही कुछ नए रूपों में प्रस्तुत करता है |इस श्रधान्जली को स्वीक्रति देने के लिए आभार ,हरी भाई आप का भी शुक्रिया
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