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आदरणीय राहुल भाई , बढ़िया गज़ल कही है , दिली बधाइयाँ स्वीकार करें ।
आदरणीय मिथिलेश भाई की सलाह उचित है , खयाल की जियेगा !
एक बात - आत्मा ( 22 ) को आतमा ( 212 ) मे बांधना शायद ठीक न हो !
आपको रचनाकर्म करते देखना एक सुखद अनुभूति है भाई राहुलजी. आप प्रयासरत रहे हैं और प्रदत्त सुझावों पर ध्यान दें तदनुरूप अभ्यास करें.
हार्दिक शुभेच्छाएँ.
वाह वाह भाई राहुल दांगी जी, ग़ज़ल अच्छी हुई है। थोड़ा कहन को उठायें एवँ बह्र को और साधें, सोने पर सुहाग हो जायेगा।
राख बनकर उड गये दिल जाँ जिगर अरमाँ!
इस तरह उसने मेरी चिट्ठी जलाई है!!
राख बनकर उड गये दिल जाँ जिगर अरमाँ!
इस तरह उसने मेरी चिट्ठी जलाई है!!
सुंदर रचना भाई जी
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