मुहब्बत का ज़ला हूँ मैं,पिघलता ही रहा हूँ मैं
ख़ुदा से माँगकर तुझको,भटकता ही रहा हूँ मैं
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समन्दर के किनारों ने समेटा है बहुत मुझको
मगर आँखों की कोरों से निकलता ही रहा हूँ मैं
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अगर सच बोलता हूँ तो,समझते हैं मुझे पागल
मगर सच्चाई को लेकर ,उबलता ही रहा हूँ मैं
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सितारों की कसम ले ले,नजारों की कसम ले ले
तेरे दीदार की ख़ातिर मचलता ही रहा हूँ मैं
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मेरी किस्मत के सौदागर ,मुझे इन्साफ तो दे दे
मेरी तनहाई को लेकर, सिमटता ही रहा हूँ मैं
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उमेश कटारा
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
somesh kumar जी शुक्रिया
योगराज प्रभाकर जी शुक्रिया
Meena Pathak जी शुक्रिया
गिरिराज भंडारी जी शुक्रिया
आदरणीय उमेश भाई , बढ़िया ग़ज़ल कही है ,
समन्दर के किनारों ने समेटा है बहुत मुझको
मगर आँखों की कोरों से निकलता ही रहा हूँ मैं -- वाह ! बहुत बधाइयाँ ।
उम्दा गज़ल ..बहुत बहुत बधाई आप को
अच्छी ग़ज़ल हुई है आ० उमेश कटारा जी. दिली बधाई।
समन्दर के किनारों ने समेटा है बहुत मुझको
मगर आँखों की कोरों से निकलता ही रहा हूँ मैं
बहुत सुंदर ,भावपूर्ण प्रेम के अहसास में सराबोर गज़ल
शुक्रियाgumnaam pithoragarhi जी
शुक्रियामिथिलेश वामनकर जी शुक्रिया
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