यूँ तो 17 बरस की उमर मेँ भी वो बड़ी भोली थी। उसकी हर बात मेँ अभी भी बचपना-सा था।
उसकी बातेँ कभी मुझे माता की गोद के समान आनन्दित कर देती तो कभी उसकी ज़िद खीझ उत्पन्न कर अपना गुस्सा उस पर उतार देने को विवश। अक्सर ही मैँ उसे कहता- "न जाने तुम कब बड़ी होओगी ?"
और वो मुस्कुरा कर कहती- "मै नही सुधरने वाली।"
आज पूरे दो साल बाद मैँ उससे मिलने वाला हूँ। जाने वो कैसी दिखती होगी? मुझे देखते ही मुझे मारने दौड़ पड़ेगी। खूब शिकायतेँ करेगी और भी न जाने क्या-क्या पूर्वानुमान लिए मैँ उससे मिलने पहुँचा।
उससे मिलकर मुझे महसूस हुआ, उसके व्यवहार मेँ वो चपलता न थी। बातोँ मेँ वो स्फूर्ति न थी। बातोँ मेँ विनोद का स्थान, गंभीरता और अदब ने ले लिया था।
"क्या ये सच मेँ वही है?"
"हाँ, है तो वही।"
पर अब शंका का निवारण आवश्यक था।
मैँने कह ही दिया- "तुम इतना बदल जाओगी, मुझे आशा न थी।"
उसका जवाब सुनकर मैँ निरूत्तर हो गया-
"बचपने से जिंदगी नही कटती समझदार तो होना ही पड़ता है।"
"पूजा"
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
Comment
बागी जी द्वारा पोलिश करने के बाद लघुकथा में और निखार आया है, जिस से पूजा यादव जी बहुत कुछ सीख सकती हैं।
एक उम्र आने के बाद
एक सफ़र बीत जाने के बाद
अहसासों का बदलना जरूरी होता है
नदी को समंदर बनना होता है |
सुंदर लघुकथा और बागी जी के मार्गदर्शन से इसकी सार्थकता का पता चलता है
पूजा जी
यह आपके content की सफलता है कि बागी जी को इसे re-write करने हेतु बाध्य होना पड़ा i पर शिल्प का वैभव आते आते ही आता है i बागी जी से सदैव कुछ सीखते रहना है i यह सच है कि लडकियों में यह औचक परिवर्तन विवाह के बाद ही आता है i
आदरणीया पूजा जी, यदि यह कथा मैने लिखी होती तो तनिक परिवर्तन के साथ यूँ होती..................
यूँ तो 17 बरस की उमर मेँ भी वो बड़ी भोली थी। उसकी हर बात मेँ अभी भी बचपना था।
उसकी बातेँ कभी मुझे माता की गोद के समान आनन्दित कर देती तो कभी उसकी ज़िद खीझ उत्पन्न कर अपना गुस्सा उस पर उतार देने को विवश। अक्सर ही मैँ उसे कहता- "न जाने तुम कब बड़ी होओगी ?"
और वो मुस्कुरा कर कहती- "मै नही सुधरने वाली।"
आज पूरे दो साल बाद मैँ उससे मिलने वाला हूँ। जाने वो कैसी दिखती होगी? मुझे देखते ही मुझे मारने दौड़ पड़ेगी। खूब शिकायतेँ करेगी और भी न जाने क्या-क्या पूर्वानुमान लिए मैँ उससे मिलने पहुँचा।
उससे मिलकर मुझे महसूस हुआ, उसके व्यवहार मेँ वो चपलता न थी। बातोँ मेँ वो स्फूर्ति न थी। बातोँ मेँ विनोद का स्थान, गंभीरता और अदब ने ले लिया था।
"क्या ये सच मेँ वही है?"
"हाँ, है तो वही।"
पर अब शंका का निवारण आवश्यक था।
मैँने कह ही दिया- "तुम इतना बदल जाओगी, मुझे आशा न थी।"
उसका जवाब सुनकर मैँ निरूत्तर हो गया-
"बचपने से जिंदगी नही कटती समझदार तो होना ही पड़ता है।"
"भईया, अब मैं ससुराल में हूँ।"
"बचपने से जिंदगी नही कटती समझदार तो होना ही पड़ता है।"
---------- क्या पंच लाइन है ? बहुत ही सुन्दर , जीवन सत्य को व्यक्त करती कथा i लड़कियों में तो यह खास दीखता है , वह अचानक ही बदल कर अतिशय जिम्मेदार और गंभीर हो जाती है i इस कथा के लिये बधाई i
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