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यूँ तो 17 बरस की उमर मेँ भी वो बड़ी भोली थी। उसकी हर बात मेँ अभी भी बचपना-सा था।
उसकी बातेँ कभी मुझे माता की गोद के समान आनन्दित कर देती तो कभी उसकी ज़िद खीझ उत्पन्न कर अपना गुस्सा उस पर उतार देने को विवश। अक्सर ही मैँ उसे कहता- "न जाने तुम कब बड़ी होओगी ?"
और वो मुस्कुरा कर कहती- "मै नही सुधरने वाली।"

आज पूरे दो साल बाद मैँ उससे मिलने वाला हूँ। जाने वो कैसी दिखती होगी? मुझे देखते ही मुझे मारने दौड़ पड़ेगी। खूब शिकायतेँ करेगी और भी न जाने क्या-क्या पूर्वानुमान लिए मैँ उससे मिलने पहुँचा।

उससे मिलकर मुझे महसूस हुआ, उसके व्यवहार मेँ वो चपलता न थी। बातोँ मेँ वो स्फूर्ति न थी। बातोँ मेँ विनोद का स्थान, गंभीरता और अदब ने ले लिया था।
"क्या ये सच मेँ वही है?"
"हाँ, है तो वही।"
पर अब शंका का निवारण आवश्यक था।
मैँने कह ही दिया- "तुम इतना बदल जाओगी, मुझे आशा न थी।"
उसका जवाब सुनकर मैँ निरूत्तर हो गया-
"बचपने से जिंदगी नही कटती समझदार तो होना ही पड़ता है।"

"पूजा"
"मौलिक एवं अप्रकाशित"

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Comment

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Comment by pooja yadav on December 9, 2014 at 8:34pm
आप सभी आदरणीय लेखकगणोँ कि मेरी रचना पर उपस्थिति के लिए मैँ दिल से आभारी हूँ।
आपकी टिप्पणियोँ और मार्गदर्शन से मुझे उत्साहवर्धन के साथ-साथ लिखने की प्रेरणा भी मिलती है, उसके लिए आप सब का कोटि-कोटि धन्यवाद।
आदरणीय "बागी" जी आपके परिवर्तन के बाद रचना और भी सुन्दर हो गई है यदि आप अनुमति देँ तो क्या मैँ अन्तिम पंक्ति अपनी लघुकथा मेँ जोड़ सकती हूँ?

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on December 9, 2014 at 11:43am

बागी जी द्वारा पोलिश करने के बाद लघुकथा में और निखार आया है, जिस से पूजा यादव जी बहुत कुछ सीख सकती हैं।

Comment by somesh kumar on December 9, 2014 at 10:21am

एक उम्र आने के बाद 

एक सफ़र बीत जाने के बाद 

अहसासों का बदलना जरूरी होता है 

नदी को समंदर बनना होता है |

सुंदर लघुकथा और बागी जी के मार्गदर्शन से इसकी सार्थकता का पता चलता है 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 7, 2014 at 9:08pm

पूजा जी

यह आपके  content की सफलता है कि बागी जी को इसे re-write करने हेतु बाध्य होना पड़ा i पर शिल्प का वैभव आते आते ही आता है  i बागी जी से सदैव कुछ सीखते रहना है i यह सच है कि लडकियों में यह औचक परिवर्तन विवाह के बाद ही आता है i


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 7, 2014 at 6:25pm

आदरणीया पूजा जी, यदि यह कथा मैने लिखी होती तो तनिक परिवर्तन के साथ यूँ होती..................

यूँ तो 17 बरस की उमर मेँ भी वो बड़ी भोली थी। उसकी हर बात मेँ अभी भी बचपना था।
उसकी बातेँ कभी मुझे माता की गोद के समान आनन्दित कर देती तो कभी उसकी ज़िद खीझ उत्पन्न कर अपना गुस्सा उस पर उतार देने को विवश। अक्सर ही मैँ उसे कहता- "न जाने तुम कब बड़ी होओगी ?"
और वो मुस्कुरा कर कहती- "मै नही सुधरने वाली।"

आज पूरे दो साल बाद मैँ उससे मिलने वाला हूँ। जाने वो कैसी दिखती होगी? मुझे देखते ही मुझे मारने दौड़ पड़ेगी। खूब शिकायतेँ करेगी और भी न जाने क्या-क्या पूर्वानुमान लिए मैँ उससे मिलने पहुँचा।

उससे मिलकर मुझे महसूस हुआ, उसके व्यवहार मेँ वो चपलता न थी। बातोँ मेँ वो स्फूर्ति न थी। बातोँ मेँ विनोद का स्थान, गंभीरता और अदब ने ले लिया था।
"क्या ये सच मेँ वही है?"
"हाँ, है तो वही।"
पर अब शंका का निवारण आवश्यक था।
मैँने कह ही दिया- "तुम इतना बदल जाओगी, मुझे आशा न थी।"
उसका जवाब सुनकर मैँ निरूत्तर हो गया-
"बचपने से जिंदगी नही कटती समझदार तो होना ही पड़ता है।"

"भईया, अब मैं ससुराल में हूँ।"

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 7, 2014 at 1:50pm

"बचपने से जिंदगी नही कटती समझदार तो होना ही पड़ता है।"

---------- क्या पंच लाइन है ? बहुत ही सुन्दर , जीवन सत्य को व्यक्त करती कथा i लड़कियों में तो यह खास दीखता है , वह अचानक ही बदल कर अतिशय जिम्मेदार और गंभीर हो जाती है i इस कथा के लिये बधाई i

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