एक धरा है एक गगन है
किंतु विभाजित अपना मन है
मीत किसी का ख़ाक बनेगा
उसकी ख़ुद से ही अनबन है
याद तुम्हारी महकाये मन
इस सहरा में इक गुलशन है
स्वर्ग तिहारे चरणों की रज
मातृधरा तुझको वंदन है
चौक बड़ा सा एक चबूतर
यादों में कच्चा आँगन है
नहीं बहलता खुशियों से मन
ग़म से अपना अपनापन है
आँसू बाती आँखें दीपक
दुख की लौ में सुख रोशन है
घाव दिये हैं जिनने दिल को
उनका दिल से अभिनन्दन है
रोजाना ढूँढू जिसमें ख़ुद को
माज़ी वो धुँधला दर्पण है
.
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
very nice congrats
आदरणीय पाठक साहब ,राहुल डांगी साहब आपकी मूल्यवान टिप्पणियों ने मेरा उत्साहवर्धन किया है |हृदयतल से आभार |सादर
आदरणीय विजयशंकर जी ,गुमनाम साहब,शकूर साहब ,सोमेश जी ,अनुराग जी ,आदरणीया छाया जी ,आदरणीय हरिवल्लभ जी ,बागी साहब ,आप सभी के स्नेह और आशीर्वाद का हृदय से आभारी हूं |सादर
आदरणीय मिथिलेश जी ,स्नेह के लिए आभारी हूं |आखरी शेर का ऊला मिसरा 'रोज़ निहारूं जिसमें ख़ुद को "अथवा" हर दिन ढूँढू जिसमे ख़ुद को " रखा जा सकता है |त्रुटि पर ध्यान दिलाने एवं ग़ज़ल पर मुहब्बत बरसाने के लिए तहेदिल से शुक्रगुज़ार हूं |सादर
आदरणीय हरिप्रकाश जी ,सादर आभार |स्नेह बनाये रखियेगा
आदरणीय गोपालनारायण साहब ,आपको ग़ज़ल पसंद आई और आपने स्नेहिल टीप की इसके लिए हृदय तल से आभार |आशा है आप इसी तरह आशीर्वाद बनाये रखेंगे |
सादर
आदरणीय गिरिराज भंडारी साहब ,आशीर्वाद के लिय हृदय से आभारी हूं |मेरे mts डोंगल ख़राब हो जाने और दूसरा डोंगल खरीदने में आलस कर जाने के कारण काफ़ी अरसा इस समृद्ध पोर्टल पर उपस्थिति दर्ज़ नही करा पाने के लिए क्षमाप्रार्थी हूं |आशा हैं आपके स्नेह में कोई कमी नहीं आई होगी |
सादर
बहुत सुन्दर ग़ज़ल आदरणीय khursheed khairadi साहब..
मीत किसी का ख़ाक बनेगा
उसकी ख़ुद से ही अनबन है
याद तुम्हारी महकाये मन
इस सहरा में इक गुलशन है...बहरीन शेर,,बधाई आपको.
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