अपनी ही परछाई से डर लगता है
मुझको इस तन्हाई से डर लगता है
साथ देखकर भाईयों का जग डरता
भाई को अब भाई से डर लगता है
मनमोहक है भोलापन उसका इतना
दुनिया की चतुराई से डर लगता है
मौन रहूं या झूठ कहूं उलझन में हूं
लोगों को सच्चाई से डर लगता है
सारा जीवन सहराओं में भटका हूं
मुझको अब अमराई से डर लगता है
कानों में इक सिसकी सीसा घोल गई
मुझको अब शहनाई से डर लगता है
ग़म की धूप गई झुलसा इतना मन को
अब सुख की जुन्हाई से डर लगता है
साथ निभाऊं शेरों का बेख़ौफ़ मगर
भेड़ों की अगुवाई से डर लगता है
सीपी से मन बहलाना है मजबूरी
सागर की गहराई से डर लगता है
दूर हमेशा रहा बुराई से लेकिन
कभी कभी अच्छाई से डर लगता है
सदियों से क्यूं बाले हो ‘खुरशीद’ जिगर ?
‘क्यूं कि मुझे कजलाई से डर लगता है’
जुन्हाई= चाँदनी
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय खुरशीद खैरादी जी.....बहुत खूब कह दिया आपने
दूर हमेशा रहा बुराई से लेकिन
कभी कभी अच्छाई से डर लगता है....हार्दिक बधाई !
खुरशीद जी
क्या कहूं i ऐ मेरे जाने गजल i
आपको इस उम्दा ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई। |
बहुत सुंदर ग़ज़ल है जनाब बहुत बहुत बधाई हो आपको
साथ देखकर भाईयों का जग डरता
भाई को अब भाई से डर लगता है
हर एक शेर कमाल हुआ है वाह वाह
bahut hi umda gazal
आप की इस गज़ल के लिए शब्द नहीं मिल रहे ,बस इतना कहना चाहूँगा ,डर के आगे जीत है और अंधरे के बाद उजाला ,खुसुरत गज़ल पे दिल से दाद
मौन रहूं या झूठ कहूं उलझन में हूं
लोगों को सच्चाई से डर लगता है
बेहतरीन ग़ज़ल की हार्दिक शुभकामनायें
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