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महबूब ख़ुदा मेरा ,उल्फ़त ही इबादत है

 २२१ १२२२ २२१ १२२२

महबूब ख़ुदा मेरा ,उल्फ़त ही इबादत है 

है दीन बड़ा मुश्किल ,आसान मुहब्बत है 

तेजाब छिड़कते हो कलियों के तबस्सुम पर 

कहते हो इसे मज़हब ,क्या ख़ूब इबारत है 

ये खून खराबा क्यूं ,ये शोर शराबा क्यूं 

मैं किसको झुकाऊँ सिर ,इसमें भी सियासत है 

इक सब्ज़ पैराहन पर , है खून के कुछ छीटें

दहशत में लड़कपन है ,नफ़रत की वज़ाहत है              वज़ाहत=विस्तार \पराकाष्टा 

बारूद की बदबू है ,बच्चों के खिलौनों में

मुँहजोर हुकूमत है ,पुरजोर मुजम्मत है                      मुजम्मत= निंदा 

क्यूं कोई बने हिन्दू ,क्यूं कोई बने मुस्लिम

क्या दीन तराजू है ,क्या धर्म तिजारत है

नापाक इरादों पर क्यूं शर्म नहीं आती

पूछो  तो ख़ुदा से ,क्या क़त्ल शराफ़त है

बन्दूक उठाते हो ,मासूम परिंदों पर

तितली के परों पर बम , क्या ख़ूब हिमाकत है

'खुरशीद'  के चेहरे पर ,कालिख न उछालो तुम

वो रात कहानी थी , ये सुबह हकीक़त है

मौलिक व अप्रकाशित  

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Comment

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Comment by Hari Prakash Dubey on December 29, 2014 at 11:15pm

नापाक इरादों पर क्यूं शर्म नहीं आती

पूंछो तो ख़ुदा से ,क्या क़त्ल शराफ़त है........सुन्दर रचना  आदरणीय खुरशीद जी , बधाई आपको !


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Comment by शिज्जु "शकूर" on December 29, 2014 at 10:48pm

आदरणीय खुरशाद जी बहुत खूबसूरत मुरस्सा ग़जल हुई है बहुत बहुत बधाई पूरी ग़ज़ल के लिये।
इक सब्ज़ पैराहन पर , है खून के कुछ छीटें बस इस मिसरे की तक्ती समझ में नहीं आ रही है।

Comment by Anurag Prateek on December 29, 2014 at 10:15pm

तेजाब छिड़कते हो कलियों के तबस्सुम पर 

कहते हो इसे मज़हब ,क्या ख़ूब इबारत है -- kya kahne wah

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 29, 2014 at 7:28pm

खुर्शीद जी 

बहुत  उम्दा  i  एक से बढ़कर एक शेर i बधाई हो i

Comment by Dr Ashutosh Mishra on December 29, 2014 at 5:07pm

तेजाब छिड़कते हो कलियों के तबस्सुम पर 

कहते हो इसे मज़हब ,क्या ख़ूब इबारत है ..समाज के वर्तमान परिदृश्य पे लिखे गए सभी अशार बहुत दिल भावन हैं चिंतन के लिए बिबश करते हैं ..झकझोरने वाले इन शेरो के लिए तहे दिल बधाई सादर 

Comment by khursheed khairadi on December 29, 2014 at 3:09pm

आदरणीय गिरिराज साहब ,मिथिलेश जी ,राहुल डांगी साहब आप सभी का हृदयतल से आभार 

१.सातवें शेर का मिसरा-ए-सानी कुछ यूं है -'पूछो तो ख़ुदा से तुम ,क्या क़त्ल शराफ़त है '  राहुल भाई जी ,माफ़ी चाहता हूं 'पूछो' का पूंछो वैसे ही हो गया जैसे आपकी टिप्पणी में 'नहीं' का 'नबीं'  तथा 'तुरंत ' का तुरनित हुआ है |ये अच्छा है कि हम पढ़ने के साथ साथ मुद्रण-त्रुटि का प्रूफ सुधार भी करते जायें |अक्सर देखा है कि मुद्रण-त्रुटि टाइपिंग करने वाले की पकड़ में नहीं आती है |सादर 

२.आदरणीय गिरिराज साहब ,मिथिलेश जी मिसरे में १२२२ की संगत  में 'ख़ुदा से तुम ' है |त्रुटि पर ध्यान दिलाने के लिए आभार

आप सभी इसी तरह स्नेह बनाये रखियेगा |  सादर 

Comment by Rahul Dangi Panchal on December 29, 2014 at 12:06pm
बहुत सुन्दर गजल आदरणीय भाव विभोर हो गया हुँ पढकर! आपके प्रष्ट पें इक सवाल है आदरणीय!
पूंछो व पूछो की मात्रा अलग है इनमे अन्तर समझाने का कष्ट करें! माफी चाहता हुँ पर मुझसे पूछे बिना रहा नबीं जाता तुरनित समझा हुआ याद रहता है! सादर!

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 29, 2014 at 11:29am

समाज की हालिया स्थिति पर सभी अशआर बहुत खूब हुये  हैं , आपको दिली बधाइयाँ ।

बारूद की बदबू है ,बच्चों के खिलौनों में

मुँहजोर हुकूमत है ,पुरजोर मुजम्मत है  

बन्दूक उठाते हो ,मासूम परिंदों पर

तितली के परों पर बम , क्या ख़ूब हिमाकत है   -- लाजवाब !! खूब बधाइय़ाँ , आदरणीय खुर्शीद  भाई । 

पूंछो तो ख़ुदा से ,क्या क़त्ल शराफ़त है    ---  ये मिसरा बेबह्र हो गया है ,  पूंछो को पूछो कर लीजियेगा ।


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Comment by मिथिलेश वामनकर on December 29, 2014 at 11:26am
इस उम्दा ग़ज़ल के लिए आपको हार्दिक बधाई।
पूछो तो ख़ुदा से क्या क़त्ल शराफत है- इस मिसरे को देख लीजियेगा।
Comment by Shyam Narain Verma on December 29, 2014 at 10:19am

" सुन्दर भावों से सजी इस गज़ल के लिए आपको बहुत बधाई ...... "

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