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नया सूरज नई आशा चलो इक बार फिर से

1222 1222 1222 122

नया सूरज नई आशा चलो इक बार फिर से 

शब-ए-ग़म में नया  किस्सा चलो इक बार फिर से 

तेरे पिंदार का दामन तसव्वुर थाम  लेगा 

तेरी यादें तेरा चर्चा चलो इक बार फिर से 

किसे हसरत बहारों की किसे चाहत चमन की 

वही जंगल वही सहरा चलो इक बार फिर से 

किसी पर तंज़िया पत्थर उछालेंगे न हरगिज 

यही ख़ुद से करें वादा चलो इक बार फिर से 

बुझेगी तिश्नगी अपनी शरारों से हमेशा 

निगलने आग का दरिया चलो इक बार फिर से 

वही गाफ़िल कदम अपने वही तनहा सफ़र फिर 

नई मंज़िल नया रस्ता चलो इक बार फिर से 

फ़लक साहिल तो युग लहरें समय था रेत लेकिन 

हुई सोच अपनी भी क़तरा चलो इक बार फिर से 

न सुलझेगी कभी हमसे पहेली ज़िंदगी की 

नई उलझन नया मसला चलो इक बार फिर से 

चुनौती आसमां को दें परों को खोलकर हम 

नई ताकत नई उर्जा चलो इक बार फिर से 

अनय के सामने झुककर बहुत चुप रह लिये हम

इरादा लब  कुशाई का चलो इक बार फिर से 

ज़िया 'खुरशीद' ने बाँटी ज़िगर अपना जलाकर 

नई ग़ज़ले नई भाषा चलो इक बार फिर से 

मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by khursheed khairadi on January 1, 2015 at 1:54pm

आदरणीय गिरिराज सर , आपके आशीर्वाद के साये-साये चलने वाले को आप क्षमा-प्रार्थना की धूप से मत झुलसाइए | मैं अभी ग़ज़ल साधना के प्रथम सोपान पर हूं |यहाँ इस्लाह और तनकीद ऊपर से आया सहारे का हाथ होता है , विन्रम निवेदन है आप हाथ बढ़ाये रखियेगा | सादर क्षमापार्थी -खुरशीद 

Comment by khursheed khairadi on January 1, 2015 at 1:48pm

आदरणीय गोपालनारायण सर ,आपका आशीर्वाद मेरे हौंसलों को नए पर देता है ,स्नेह बनाये रखियेगा |सादर 

Comment by khursheed khairadi on January 1, 2015 at 1:46pm

आदरणीय शकूर सर 

हार्दिक  आभार |आपको ग़ज़ल पसंद आई , मेरी मेहनत सफल हो गई |सादर 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 1, 2015 at 1:23pm

फ़लक साहिल तो युग लहरें समय था रेत लेकिन 

हुई सोच अपनी भी क़तरा चलो इक बार फिर से---------anivarchneey I   ati sundar I


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Comment by शिज्जु "शकूर" on January 1, 2015 at 7:52am

जनाब खुर्शीद साहब लाजवाब ग़ज़ल है बहुत बहुत बधाई आपको इस शानदार ग़ज़ल के लिये


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 1, 2015 at 7:33am

आदरणीय खुर्शीद भाई , सबसे पहले मै आपसे क्षमा चाहता हूँ , लापरवाही से आपकी गज़ल पढ़ के प्रतिक्रिया दे दिया । लापरवाही इसलिये कि मैने खुद अपनी गज़ल मे अलिफ वस्ल का उपयोग किया है । मुझे दुख है कि आपको मेरी वज़ह से इतनी ज़हमत उठानी पड़ी । पुनः क्षमाप्रार्थी हूँ । और लाजवाब ग़ज़ल के लिये पुणः बधाई प्रेषित कर रहा हूँ ।

Comment by khursheed khairadi on January 1, 2015 at 12:23am

आदरणीय गिरिराज सर ,राहुलजी , मिथिलेश जी , सोमेश भाई ,आदरणीय विजयशंकर साहब ,हरिप्रकाश दुबे जी ,आप सभी का सादर आभार |आप सभी का स्नेह उतरोत्तर उत्कृष्ट लेखन को प्रोत्साहित करता है |मेरी समझ के हिसाब से आलोचित मिसरे में -

१. 'हुई सोच+ अपनी '  अलिफ़-वस्ल के कारण हुई सोचप -नी होने से १२-२२ (वतद+फासला) की तक्ती हो रही है |

उदाहरण - शायद उनका आखरी हो ये सितम (शायदुनका आखरी हो ये सितम =२१-२२  २१-२२  २१-२ )

२. 'नी भी क़तरा'  में  "नी " में  हुरुफे-इल्लत याय(ई )  की मात्रा गिरकर लाम (लघु) हुई है, अतः नि भी -क़तरा =१२-२२ (वतद+फासला ) की तक्ती हो रही है | उदाहरण - मुझे अपनी शामों से इक शाम देदो ( मुझे अप  नि शामों  स इक शा  म देदो =१२-२  १२-२  १२-२  १२-२)

शायद मैं गलत सीख रहा होऊं ,  इसीलिए मंच के अग्रजों की राय पुनः चाहता हूं , ताकि सही तथ्य सभी तक पहुँचे |

सादर 

Comment by Hari Prakash Dubey on December 31, 2014 at 7:37pm

किसे हसरत बहारों की किसे चाहत चमन की 

वही जंगल वही सहरा चलो इक बार फिर से ...आदरणीय खुर्शीद जी सुन्दर रचना ,हार्दिक बधाई !

Comment by Dr. Vijai Shanker on December 31, 2014 at 6:24pm
न सुलझेगी कभी हमसे पहेली ज़िंदगी की
नई उलझन नया मसला चलो इक बार फिर से ।
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल। बधाई आदरणीय खुर्शीद खैरादी जी, सादर।
Comment by somesh kumar on December 31, 2014 at 4:18pm

सुंदर गज़ल ,भाई जी 

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