122-122
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जहां में लगा है
खुदी से जुदा है
हुआ मैं पशेमाँ
गज़ब देखता है
कभी रूह झांको
खुदा बोलता है
सजन शे’र जैसा
लबों पे सजा है
सजा ज़िन्दगी की
अजब फैसला है
हंसी जब्त कर लो
हंसी में सदा है
बड़ी दास्तां है
मगर ये ज़दा है
सफ़र है गली में
मकां में अमा है
ग़मों का य’ दरिया
कहे कब रुका है
जिसे देखता हूँ
नज़र फेरता है
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(मौलिक व अप्रकाशित)
© मिथिलेश वामनकर
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बह्र-ए-मुतक़ारिब मुरब्बा सालिम
अर्कान – फऊलुन- फऊलुन
वज़्न – 122-122
Comment
आदरणीय मिथिलेश भाई , मै ये बात आपसे कहने ही वाला था पर अनावश्यक समज के रुक गया था , कि आप रचनायें पोस्ट करने में जल्दबाजी तो नहीं कर रहे हैं , आदरणीय वीनस भाई ने मुझसे कहा था कि ग़ज़ल पूरी हो जाने के बाद कमसे कम 10 दिन अपने पास रखें और रोज़ एक बार ज़रूर पढें , खामियाँ खुद ब खुद कम से कम होते चली जायेंगी । आपको सही लगे तो आप भी इसे अपना सकते हैं , कोई ज़रूरी नियम नहीं है ।
आदरणीय मिथिलेश भाई , छोटी बहर में अच्छी बात कही है , बधाई स्वीकार करें ।
आपने स्वयं कह दिया है . रवाँ , ज़बाँ और मकाँ तीनो अशआर गज़ल से ख़ारिज हो रहे हैं , फिर से देख लीजियेगा ।
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी,
सजा ज़िन्दगी की
अजब फैसला है.....सुन्दर ,हार्दिक बधाई आपको !
वामनकर जी
छोटी बह्र पर भी धमाल i
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