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जब नए शब्द बुन लूँगा

कल से तुम नहीं 

तुम्हारी यादें आएँगी

गिरेगी बूंदें आँखों से

समुन्दर बन जायेंगी

रो- रो कर    मैं  भी

समुन्दर  भर  दूंगा

पर तुम्हे मन की बात कहूँगा

जब नए शब्द बुन लूँगा !! 

तुम साधारण नहीं

साधारण शब्द  तुम्हारे नहीं

तुम्हे प्यार करता हूँ

इन अर्थहीन शब्दों को,

तुमसे कभी नहीं कहूँगा

नयी उपमायें गढ़ लूँगा

पर तुम्हे मन की बात कहूँगा,

जब नए शब्द बुन लूँगा !!

 

तुमसे बात नहीं हो पायेगी

तुम संग की  बातों को

दिल मैं रख लूँगा

चिठ्ठी में कविता लिख दूंगा

गीत जो तुम पर लिखे

उन्हें गुनगुना लूँगा

पर तुम्हे मन की बात, कहूँगा,

जब नए शब्द बुन लूँगा !!

 

तुमसे दूरी नहीं सही जायेगी,

वाणी से नियंत्रण खो दूंगा

रो दूंगा ..................

हद मैं रह कर

सारी सरहद तोड़ दूंगा

ख़ुद अपना दिल जला

दिल का दिया रोशन करूंगा

पर... तुम्हे मन की बात कहूँगा

जब नए शब्द बुन लूँगा !!

.

© हरि प्रकाश दुबे

"मौलिक व अप्रकाशित"

 

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Comment

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Comment by Hari Prakash Dubey on December 28, 2014 at 8:52pm

आदरणीय योगराज सर ,यह रचना ठीक से फ्रेम में नहीं बैठ  पा रही थी ..पर पुनः प्रस्तुत करने पर आपने इसे स्वीकार किया आपका हार्दिक आभार !

Comment by Hari Prakash Dubey on December 28, 2014 at 8:33pm

आदरणीय मिथिलेश जी, आपकी सार्थक प्रतिक्रिया से रचना सार्थक हुई , हार्दिक आभार आपका I

Comment by Hari Prakash Dubey on December 28, 2014 at 8:31pm

आदरणीय गिरिराज सर ,रचना पर आपका समर्थन और प्यार मिला ,हार्दिक आभार आपका ! आपके स्नेह और मार्गदर्शन  की अपेक्षा हमेशा  रहेगी ! सादर !


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 28, 2014 at 2:01pm

आदरणीय हरि प्रकाश दुबे जी  , बहुत ही सुन्दर भावाभिव्यक्ति  के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें ...


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 27, 2014 at 9:24pm

आदरणीय हरि प्रकाश भाई , बहुत सुन्दर भाव पूर्ण प्रस्तुति दी है , बधाई स्वीकार करें ।

कृपया ध्यान दे...

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