मैं सूर्य के
गर्भ में पला हूँ
मैं अपने ही
अंतर्द्वंदों की आग में
तिल -तिल जला हूँ
अनगिनत दी हैं
अग्नि परीक्षायें
और उन क्रूर परीक्षाओं में
हरदम खरा उतरा हूँ
आसमां से मैं
धरती पर गिरा हूँ
अपने आप से ही
मैं निरंतर लड़ा हूँ
मैंने प्रसन्नचित्
मर्मान्तक पीड़ा के
पहाड़ को झेला है
हसं हसं कर
आग से खेला है
तपस्वी सा तपा हूँ
नहाया हूँ डूबकर
समुद्र में,मैं
तब अडिग चट्टान सा खड़ा हूँ
अपने ही विस्तार में
मैंने बंधा है काल को
साधा है विष विकराल को
विष पीया है
अमृत बांटा है
मनुष्यता के प्यार में
तुम्हें बचाने, मैं
नीलकंठ बन उतरा हूँ !!
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
बहुत बहुत आभार सोमेश भाई आपका , आपकी सुन्दर प्रतिक्रिया के लिए !
आदरणीया प्रतिभा त्रिपाठी जी ,आपके अत्यंत उत्साहवर्धक शब्दों ,आपकी रचना पर प्रतिक्रिया ने ,रचना का मान बढ़ा दिया , आपका हार्दिक धन्यवाद !सादर
आदरणीय मिथिलेश जी ,रचना पर आपकी सुन्दर प्रतिक्रिया से मन अभिभूत हो उठा , आपका पुनः आभार !
मैंने बंधा है काल को
साधा है विष विकराल को
विष पीया है
अमृत बांटा है
मनुष्यता के प्यार में
तुम्हें बचाने, मैं
नीलकंठ बन उतरा हूँ !!
बेहद गहन विचार हैं इन पंक्तियों में इसका राजनैतिक अर्थ भी हो सकता है और अध्यात्मिक भी ,दोनों ही अर्थों में सुंदर भावपूर्ण रचना
आदरणीय योगराज सर आपका भी हार्दिक आभार !
आदरणीय इं.गणेश जी "बागी जी ,रचना पर आपकी प्रतिक्रिया हमेशा उत्साह बढ़ा देती है ,आपका हार्दिक धन्यवाद ! सादर !
आदरणीय डॉक्टर गोपाल नारायण सर ,रचना आपको पसंद आयी ,हार्दिक आभार आपका ! सादर प्रणाम !
आपका हार्दिक आभार आदरणीय मिथिलेश जी !
बहुत बढ़िया, अच्छी अभिव्यक्ति पर बधाई आदरणीय हरिप्रकाश दुबे जी .
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