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मैंने ऐसा मंज़र देखा

मैंने ऐसा मंज़र देखा।
बहती आँख समंदर देखा।।

मुझको अपना कहता था जो।
उसके हाथों खंजर देखा।।

मुखड़ा देखा जबसे उनका।
तबसे चाँद न अम्बर देखा।।

शायद कुछ तो दिख ही जाये।
मैंने खुद के अंदर देखा।

दूर दूर तक हरियाली थी।
धरती अब वो बंज़र देखा।।
**********************
राम शिरोमणि पाठक
मौलिक।अप्रकाशित

Views: 745

Comment

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Comment by Anurag Prateek on December 26, 2014 at 8:34pm

शायद कुछ तो दिख ही जाये।
मैंने खुद के अंदर देखा।---सुंदर


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Comment by मिथिलेश वामनकर on December 26, 2014 at 8:34pm

बहुत सुन्दर भाई जी .... क्या खूब लिखा है सब अशआर एक से बढ़कर एक. भाव तो सुन्दर है ही, शिल्प भी सधा हुआ है . आप में गज़ब की संभावनाएं है ... अच्छी ग़ज़ल हुई है दिल से दाद कुबूल कीजिये .... 

बस आखिरी शेर में मुझे कुछ सुधार की सम्भावना नजर आ रही है 

दूर दूर तक हरियाली थी।
धरती अब वो बंज़र देखा।।.... धरती के लिए देखा कुछ अटपटा लग रहा है यदि आपको उचित लगे तो इसे कुछ यूं कह सकते है -

दूर दूर तक हरियाली थी।
अब के आलम बंज़र देखा।।

सादर..........

Comment by somesh kumar on December 26, 2014 at 8:18pm

शायद कुछ तो दिख ही जाये।
मैंने खुद के अंदर देखा।

सुंदर रचना और ये पंक्तियाँ बहुत पसंद आई 

Comment by Hari Prakash Dubey on December 26, 2014 at 4:32pm

सुन्दर  रचना राम शिरोमणि पाठक जी ,बधाई !

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