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तू मुहब्बत न आजमा मेरी
है तेरे वास्ते वफ़ा मेरी
यूँ कहे पर न जा ज़माने के
गाह चौखट तलक तो आ मेरी
अश्क़ चाहें निकलना आँखों से
रोकती है उन्हें अना मेरी
कौन रखता हिसाब ज़ख़्मों का
खुद मैं कातिब हयात का मेरी
रेत में दफ़्न हो गया कतरा
जो ज़बीं से अभी गिरा मेरी
ज़ख़्म देते हैं वो मुझे पहले
फिर वही करते हैं दवा मेरी
हर सफर में उदास राहों पर
साथ मेरे चले सदा मेरी
राहे माज़ी में लौटकर देखा
शक्लें बिखरी थीं जा ब जा मेरी
(कातिब- लेखक, जा ब जा- जगह-जगह)
-मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय डॉ आशुतोष सर आपका हार्दिक आभार
आदरणीय सोमेश कुमार जी आपका हार्दिक आभार
आदरणीय सौरभ सर रचना पर आपकी प्रतिक्रिया की सदैव प्रतीक्षा रहती है आपका बहुत बहुत शुक्रिया हौसलाअफ़ज़ाई के लिये
आदरणीय मिथिलेश जी आप स्वयं एक समर्थ रचनाकार हैं, आपके अनुमोदन से रचनाकर्म सार्थक हुआ है आपका हार्दिक आभार
आदरणीय हरिप्रकाश दूबे जी मेरी रचना को मान देने के लिये आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीय गणेश जी आपका हार्दिक आभार जो आपने रचना को सराहा
आदरणीय गिरिराज सर आप जैसे रचनाकार का अनुमोदन पा के रचनाकर्म सार्थक हुआ है आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीय शिज्जू जी ..इस ग़ज़ल के हर उम्दा शेर के लिए आपको ढेर सारी बधाई ....
कौन रखता हिसाब ज़ख़्मों का
खुद मैं कातिब हयात का मेरी..पर यह शेर तो दिल को बेहद भाया ..सादर
तू मुहब्बत न आजमा मेरी
है तेरे वास्ते वफ़ा मेरी
कौन रखता हिसाब ज़ख़्मों का
खुद मैं कातिब हयात का मेरी
इन दोनों शे'रों ने छु लिया ,गज़ल स्वयं में समर्थवान कलमकार की कलम से है इससे ज़्यादा क्या कहना
बहुत खूब भाई शिज्जू जी.. इस पूरी ग़ज़ल को एक साँस में पढ़ गया. हर शेर पर मुग्ध होता गया. आपकी ग़ज़ल के ये शेर बातचीत करते हैं. वाह वाह !
लेकिन इन दो अशआर पर मैं विशेष तौर दाद दे रहा हूँ.
कौन रखता हिसाब ज़ख़्मों का
खुद मैं कातिब हयात का मेरी
राहे माज़ी में लौटकर देखा
शक्लें बिखरी थीं जा ब जा मेरी
ढेर सारी शुभकामनाएँ
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