मजदूरों की बस्ती में दो कँपकँपाती हुई आवाज़ें
“सुना है घर वापसी के 5 लाख दे रहे हैं”
“हाँ भाई मैं भी सुना”
“हम तो घर में ही रहते हैं, कुछ हमें भी दे देते”
-मौलिक व अप्रकाशित
Comment
वाह बहुत सुंदर कथा , किस कदर बेबसी को दर्शाया है आपने वो भी इतने कम शब्दों में , बहुत खूब आदरणीय सिज्जू जी |
आदरणीय सौरभ सर रचना पर विस्तृत टिप्पणी से मन हर्ष से भर गया, उस पर आपका अनुमोदन हौसला बढ़ा गया। आपका तहेदिल से शुक्रिया।
आदरणीय विनय कुमार सिंह जी आपने रचना को समय दिया मैं आपका तहेदिल से आभारी हूँ
आदरणीया महेश्वरी जी रचना की सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार
अय हय ! अय हय ! क्या करारा, क्या सटीक !
वार्तालाप में एक के स्वर की बेबसी जिस मासूमियत से उभर कर आयी है कि मुँह से बरबस ’वाह’ निकल रहा है, शिज्जू भाईजी. एक अनायास ही व्यापक हो गयी गयी या सायास व्यापक की गयी प्रक्रिया कितनी गहराई तक समाज को आंदोलित करती है, यह आपकी लघुकथा से ज़ाहिर है.
फ़ैज़ ने सही ही कहा है न - और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा ..
इस सशक्त लघुकथा पर दिल से बधाइयाँ
बहुत बेहतरीन लघुकथा , हार्दिक बधाई आपको ..
सुंदर लघुकथाआपको हार्दिक बधाई !
आदरणीय सोमेश जी आपका हार्दिक आभार। प्रवासियों के घर लौटने पर 5 लाख कौन देगा आप ही बतायें। आजकल किसको पड़ी ये जानने की कि देश में कौन है और विदेश में कौन। सबका अपना स्वार्थ हैं थोड़ा सा ज़ोर दिमाग को दें तो आप समझ जायेंगे।
आदरणीय हरिप्रसाद दूबे जी आपका हार्दिक आभार
सुंदर लघुकथा है पर इसका सांकेतिक भाव समझ नहीं आया ,यहाँ घर वापसी धर्मांतरण के संद र्भ में है अथवा प्रवासियों के लौटने हेतु
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