221 2121 1221 212
लिखता हूँ हर्फ़-हर्फ़ मैं जो तेरे नाम से
जज़्बात, दर्द, अश्क़ के हर एहतमाम से
क्या हो गया जो कोई उन्हें जानता नहीं
मक़बूलियत अदीब की है उनके काम से
मिल ही गया मुकाम उसे आखिरश कहीं
बेजा भटक रहा था मुसाफिर जो शाम से
शाइस्तगी न बज़्म में थी कोई मस्लहत
टकरा रहे थे लोग जहाँ जाम, जाम से
गुरबत बिकी थी लाख टके में मगर “शकूर”
गुरबत फ़रोश जी न सका एहतराम से
(एहतमाम- इंतज़ाम, मक़बूलियत- प्रसिद्धि, अदीब– साहित्यकार,
मस्लहत- बनाव बिगाड़ सोच के कोई काम करना, फ़रोश-बेचनेवाला)
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
क्या हो गया जो कोई उन्हें जानता नहीं
मक़बूलियत अदीब की है उनके काम से
मिल ही गया मुकाम उसे आखिरश कहीं
बेजा भटक रहा था मुसाफिर जो शाम से
आदरणीय शिज्जू सर , सभी अशहार लाज़वाब हुये हैं |तमाम ग़ज़ल खूबसूरत है |सादर अभिनन्दन
शाइस्तगी न बज़्म में थी कोई मस्लहत
टकरा रहे थे लोग जहाँ जाम, जाम से..... बहुत खूब शिज्जू सर, हार्दिक बधाई !
गुरबत बिकी थी लाख टके में मगर “शकूर”
गुरबत फ़रोश जी न सका एहतराम से
शिज्जू भाई - बेहतरीन i शब्दातीत i
शिज्जु भाई जी, इस बेहतरीन और उम्दा ग़ज़ल पर ढेर सारी बधाई
आदरणीय शिज्जु भाई जी, इस बेहतरीन और उम्दा ग़ज़ल पर ढेर सारी बधाई स्वीकार करे, पाँचों अशआर क़माल है ... सादर
वाह वा ! क्या रवाँ , बेमिसाल गज़ल हुई है , आदरनीय शिज्जु भाई , सभी अशआर एक से एक हैं , जैसे पाँच नगीने । हार्दिक बधाइयाँ ।
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