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कभी आवाज की सूरत , कभी केवल इशारों से
बुलावा आज भी आता है , नदियों कोहसारों से
मैं प्यासा तो नहीं हूँ पर सराबों से ये पूछूंगा
कि बदली क्यूँ गुजरती ही नहीं है रेगजारों से
बड़ी बेताब सी लहरें बढ़ी तो हैं ज़रा देखें
वो कहना चाहती है क्या, अभी जाकर किनारों से
अभी मायूसियाँ छाई हुयी हैं दिल में अन्दर तक
अभी कुछ दिन न आये घर , कोई कह दे बहारों से
जो भटका रहनुमाँ ही हो, तो राहें क्या करें यारों
शिकायत बेसबब क्यूँ कर रहे हो रहगुजारों से
विदा के वक़्त डोली में जो बैठेगी मेरी बेटी
कभी धीमा चले कहना , कभी थम थम कहारों से
ग़रीबी है उदासी है , कहीं है भूख लाचारी
इन्हीं रंगों को ले खुशियाँ रचेंगे हम नजारों से
बहुत रोते हुए नग्मे सुने , गाये उदासी को
रगों में बिजलियाँ भर दो कहो नगमा निगारों से
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
बुलावा आज भी आता है , नदियों कोहसारों से.......आदरणीय गिरिराज भंडारी सर ,बहुत ही सुन्दर रचना है ! हार्दिक बधाई , सादर !
आदरणीय शिज्जु भाई , बहुत बहुत आभार आपका गज़ल की सराहना के लिये ।
आदरणीय दिनेश भाई , सराहन और उत्साह वर्धन के लिये आपका हार्दिक आभार ।
हौसला अफज़ाई के लिये बहुत बहुत शुक्रिया , आदरनीय अनुराग भाई !!
बहुत बढ़िया ग़ज़ल आदरणीय गिरिराज जी बहुत बहुत बधाई आपको
जो भटका रहनुमाँ ही हो, तो राहें क्या करें यारों
शिकायत बेसबब क्यूँ कर रहे हो रहगुजारों से --= kya baat hai
poori gazal waaaaaaaaaaaaaaah wah adarniya
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