1222 / 1222 / 1222 / 1222
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ग़ज़ल ने यूँ पुकारा है मेरे अल्फाज़, आ जाओ
कफ़स में चीख सी उठती, मेरी परवाज़ आ जाओ
चमन में फूल खिलने को, शज़र से शाख कहती है
बहारों अब रहो मत इस कदर नाराज़ आ जाओ
किसी दिन ज़िन्दगी के पास बैठे, बात हो जाए
खुदी से यार मिलने का करें आगाज़, आ जाओ
भला ये फ़ासलें क्या है, भला ये कुर्बतें क्या है
बताएँगे छुपे क्या-क्या दिलों में राज़, आ जाओ
हमारे बाद फिर महफिल सजा लेना ज़माने की
तबीयत हो चली यारों जरा नासाज़, आ जाओ
अकीदत में मुहब्बत है सनम मेरा खुदा होगा
अरे दिल हरकतें ऐसी ज़रा सा बाज़ आ जाओ
मरासिम है गज़ब का मौज़ से, साहिल परेशां है
समंदर रेत को आवाज़ दे- ‘हमराज़ आ जाओ’
ख़ुशी ‘मिथिलेश’ अपनी तो हमेशा बेवफा निकली
ग़मों ने फिर पुकारा है- ‘मिरे सरताज़ आ जाओ’
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(मौलिक व अप्रकाशित) © मिथिलेश वामनकर
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बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम
अर्कान – मुफाईलुन / मुफाईलुन / मुफाईलुन / मुफाईलुन
वज़्न – 1222 / 1222 / 1222 / 1222
Comment
आदरणीय दिनेश भाई जी ये ग़ज़ल तीन दिन पहले की पोस्ट है .... ग़ज़ल आपको पसंद आई आभार ... हार्दिक धन्यवाद
आदरणीय अनुराग प्रतीक भाई जी आपने रोहिताश्व अस्थाना जी की किताब – ‘ हिंदी ग़ज़ल- उद्भव और विकास’ और ; डॉ दुर्गेश नंदिनी जी की - ‘भारतीय काव्य शास्त्र में हिंदी ग़ज़ल की संकल्पना’ का उल्लेख किया है, ये किताबें मैंने पढ़ी नहीं है लेकिन अवश्य पढूंगा. यदि आप उक्त किताबों के मूल कथ्य पर कुछ प्रकाश डाले अथवा एकाध आलेख लिख दे तो हिंदी ग़ज़ल के साथ साथ हम सीखने वाले नए रचनाकारों का भी भला होगा . एक निवेदन सादर
आदरणीय सौरभ सर न या ना का वज्न 1 होता है ये ग़ज़ल के विधान की परम्परा सही है और मैं इसमें सुधार भी कर चुका हूँ सादर
मैं आ. सौरभ पाण्डेय जी के विचारों से आंशिक रूप से सहमत हूँ.आप गुणीजनों की बातों से बहुत अच्छी-अच्छी बातें छन कर आई हैं.लेकिन हिंदी ग़ज़ल कुछ और चाहती है. जिसने भी न पढ़ी हो वो एक बार रोहिताश्व अस्थाना जी की किताब – ‘ हिंदी ग़ज़ल उद्भव और विकास’ ; डॉ दुर्गेश नंदिनी जी की - ‘भारतीय काव्य शाश्त्र में हिंदी ग़ज़ल कि संकल्पना’, सरसरी निगाह से अवश्य देखने का कष्ट करें. हिंदी ग़ज़ल का भला होगा
आदरणीय मिथिलेशजी,
आपकी इस विशद टिप्पणी में बहुत कुछ साझा हुआ है. इसमें से कई तथ्य हमारे निवेदन को मिले समर्थन स्वरूप हैं.
जिस विन्दु पर हम चर्चा कर रहे हैं, आदरणीय, वह एक निरंतर चलती हुई प्रक्रिया है. अतः, जो कुछ होगा वह धीरे-धीरे ही होगा. तब ही एक-एक कर होती हुई प्रक्रिया स्थापित मंतव्यों का कारण बनेगी.
अलबत्ता, हिन्दी और उर्दू का विकास करीब-करीब एक साथ हुआ है. इन दोनों का अलग-अलग भाषाओं के रूप में निर्धारण बाद की बातें हैं. अवहट्ट या प्राकृत या देसज शब्दों को बलात निकाल कर हिन्दवी भाषा (अमीर खूसरो द्वारा प्रयुक्त) को तथाकथित उर्दू बनाने की क़वायद हुई. यह भी हुआ दक्षिण (हैदराबाद) के प्रभाव से. वर्ना दिल्ली की तात्कालीन भाषा हिन्दवी ही थी.
खैर, इन संदर्भों में भाषा सम्बन्धी इतिहास में अधिक जाने की आवश्यकता नहीं है. ऐसी चर्चा का मूल कारण हिन्दी और उर्दू के स्वरूप को समझने की है.
यह अवश्य है कि हिन्दी के उस स्वरूप में न के लिए ना का प्रयोग नहीं होता. यह ग़ज़ल के विधान की परम्परा ही बन गयी.
हालाँकि ग़ज़लवेत्ता आदरणीय पंकज सुबीर इन अर्थों में प्रतिप्रश्न करते हैं, कि न की जगह ना का प्रयोग हो ही गया तो ग़ज़ल के विधान में ऐसा कौनसा दोष आजायेगा ? अरुज़ के हिसाब से कौनसी आफ़त आ जायेगी ?
ऐसा प्रतिप्रश्न सम्यक है. समीचीन है. लेकिन ना का प्रयोग न करते हैं और ऐसा कर हम एक ’परम्परा’ का निर्वहन ही निर्वहन कर रहे हैं.
इन्हीं संदर्भों मे आपकी तरही ग़ज़ल पर यह निर्णय हुआ है, कि न की जगह ना का प्रयोग मान्य नहीं है.
//वास्तव में आज की बोलचाल और मीडिया की भाषा बहुत अधिक भाषा विशेष की आग्रही नहीं रह गई है अब न तो हिन्दीभाषा संस्कृतनिष्ठ शैली की रही है और न ही उर्दूभाषा फारसीनिष्ठ शैली की. //
आज की मीडिया, विशेषकर टीवी मीडिया की बात न ही करें तो अधिक बेहतर. शब्द, वाक्य, शब्द-गठन यानि किसी तरह से अधिकांश संवाददाताओं की भाषा पर पकड़ नहीं है. इन विन्दुओं पर पत्रिकाओं में लगातार आलेख आते रहे हैं. और यह वस्तुतः अत्यंत चिंता का विषय है.
भला ये फ़ासलें क्या है, भला ये कुर्बतें क्या है
बताएँगे छुपे क्या-क्या दिलों में राज़, आ जाओ
हमारे बाद फिर महफिल सजा लेना ज़माने की
तबीयत हो चली यारों जरा नासाज़, आ जाओ
आदरणीय मिथिलेश जी सर तमाम ग़ज़ल खुबसूरत है |सभी अशहार लासानी हैं |सादर अभिनन्दन |
मेरा तो मानना है कि ग़ज़ल जिस लिपि में लिखी जा रही है ,उसी लिपि के उच्चारण को महत्व दिया जाना चाहिए | उर्दू मे क्ष 'त्र 'ज्ञ ' श्र तथा ऋ जैसे वर्णों हेतु कोई वर्ण नहीं होने से वहाँ (उर्दू लिपि में ) तिरशूल , शरमिक , बिरहामिन विग्यान जैसे रूप देखने को मिले है | स्कूल का उच्चारण इसकूल भी कहीं जगह हुआ है | तुलसीदास के मानस में गरीबनिवाज जैसे कई शब्दों का हिंदी रूप आया है |
मेरी राजस्थानी में क्षमा=खमा , क्षार=खार ,जैसे कई उच्चारण स्वीकार्य है |
यदि इस मंच पर हिंदी ग़ज़लों की सशक्त भावाभिव्यक्ति को पैमाना मानते हुये कोई एकमत बनता है तो वो सभी केलिए मार्गदर्शी सिद्ध होगा |
सादर अभिनन्दन |पुनः बहुत बहुत बधाई |
आदरणीय सौरभ पांडे सर,
ग़ज़ल विधा में हिंदीभाषी रचनाकारों द्वारा देवनागरी में रचनाकर्म पर आपके मार्गदर्शन से कुछ राहत का अहसास हो रहा है. मैंने ग़ज़ल विधा में रचनाकर्म का आरम्भ, मकबूल शायर परमआदरणीय बशीर बद्र जी की ग़ज़लों और परमआदरणीय दुष्यंत कुमार जी की ग़ज़लों को पढने के बाद, प्रेरित होकर किया है. आ. दुष्यंत कुमार जी अपने ग़ज़ल संग्रह “साए में धूप” की प्रस्तावना में लिखते है-
“ मैं स्वीकार करता हूँ .... कि कुछ उर्दू-दाँ दोस्तों ने कुछ ऊर्दू शब्दों के प्रयोग पर एतराज किया है। उनका कहना है कि शब्द ‘शहर’ नहीं ‘शह्र’ होता है, ‘वज़न’ नहीं ‘वज़्न’ होता है। कि मैं उर्दू नहीं जानता लेकिन इन शब्दों का प्रयोग यहाँ अज्ञानतावश नहीं, जानबूझकर किया गया है। यह कोई मुश्किल काम नहीं था कि ‘शहर’ की जगह ‘नगर’ लिखकर इस दोष से मुक्त पा लूँ, किंतु मैंने उर्दू शब्दों को उस रूप में इस्तेमाल किया है, जिस रूप में वे हिन्दी में घुल मिल गए हैं। उर्दू का ‘शह्न’ हिंदी में ‘शहर’ लिखा और बोला जाता है; ठीक उसी तरह जैसे हिंदी का ‘ब्राह्मण’ उर्दूं में ‘बिरहमन’ हो गया है और ‘ऋतु’ ‘रुत’ हो गई है। कि उर्दू और हिंदी अपने-अपने सिंहासन से उतरकर जब आम आदमी के पास आती हैं तो उनमें फ़र्क कर पाना बड़ा मुश्किल होता है। मेरी नीयत और कोशिश यह रही है कि इन दोनों भाषाओं को ज़्यादा से ज़्यादा क़रीब ला सकूँ। इसलिए ये ग़जलें उस भाषा में कही गई हैं, जिसे मैं बोलता हूँ ।”
उनके इस प्राक्कथन को मैंने न केवल उनकी भावनाएं और विचार माना है बल्कि अपने लिए मार्गदर्शन के रूप में भी देखता हूँ. यही कारण है कि अपनी ग़ज़लों में मैं वही शब्द लिखता हूँ जो सामान्य बोलचाल में उच्चारण करता हूँ . मैंने अपनी पहली ग़ज़ल तरही मुशायरा -53 में प्रस्तुत की थी जिसका एक अशआर था –
उस शहर की हयात क्या कहिये
ना तबस्सुम न शादमानी थी ................. इसमें वज्न था - (२१२२-१२१२-२२ )
इसमें दो त्रुटियाँ बताई गई थी एक शहर वास्तव में शह्र होता है और इसका वज्न 21 होता है मैंने वज्न 12 लिया था. दूसरी त्रुटी ग़ज़ल में न और ना का वज्न 1 ही होता है अतः मैंने इस अशआर को कुछ ऐसे बदला था –
शह्र की अब हयात क्या कहिये
जो तबस्सुम न शादमानी थी
ये त्रुटी बोलचाल में उच्चारण की आदत के कारण हुई थी और न एवं ना का प्रयोग हिन्दी छंदों में परंपरा के अनुसार प्रयोग करने के कारण. ग़ज़ल को देवनागरी लिपि में लिखते है तो स्वतः ही उच्चारण और लेखन, अपने भाषिक-संस्कारों के अनुसार होने लगता है. वैसे तो उच्चारण प्रत्येक व्यक्ति का अलग अलग होता है चाहे वह एक ही क्षेत्र के क्यों न हों। इसी भेद को व्यक्ति की बोली की अवधारणा में निहित मान सकते है। बहुभाषिकता के कारण उच्चारण संबंधी मूल ध्वनियों का ज्ञान, इतर भाषा-भाषी लोगो को नहीं हो पाता है। प्रत्येक भाषा की कुछ ध्वनियाँ इस प्रकार होती हैं कि उन्हें लिखने के लिए कुछ भिन्न ध्वनि प्रतीक की जरुरत होती है। उच्चारण तो बार-बार अभ्यास करके भी सीख सकते है, लेकिन असली समस्या लिखने के समय आती है। उदाहरण के लिए, मेरी इस ग़ज़ल में काफिया में ज़/ज के उच्चारण के लिए उर्दू में कई वर्ण हैं, उर्दू में ज को 6 तरीके से लिखा जाता है (जीम, ज़ाल, ज़े, ज़्हे, ज़्वाद, और ज़ोय). अब हिन्दी भाषी जो फारसीनिष्ठ उर्दूभाषी नहीं है और फारसी लिपि का ज्ञान नहीं है उनके लिए इस अंतर को समझना बहुत मुश्किल है जबकि दैनिक जीवन में इन शब्दों का प्रयोग वो धड़ल्ले से करते है जैसे, . सरताज سرتاج, . हमराज़ہم راز , बाज़باز ,ना-साज़ناساز ,राज़راز ,आग़ाज़آغاز, पर्वाज़پرواز, . नाराज़ناراض , . अल्फ़ाज़الفاظ. ऐसी स्थिति में
केंद्रीय हिंदी निदेशालय की ''देवनागरी लिपि और हिंदी वर्तनी का मानकीकरण" नामक पुस्तक की मानना उचित प्रतीत होता है. इसमें कहा गया है -
“उर्दू से आए अरबी-फ़ारसी मूलक वे शब्द जो हिंदी के अंग बन चुके हैं और जिनकी विदेशी ध्वनियों का हिंदी ध्वनियों में रूपांतर हो चुका है, हिंदी रूप में ही स्वीकार किए जा सकते हैं। जैसे, कलम, किला, दाग आदि (क़लम, कि़ला, दाग़ नहीं)। पर जहाँ उनका शुद्ध विदेशी रूप में प्रयोग अभीष्ट हो अथवा उच्चारणगत भेद बताना आवश्यक हो, वहाँ उनके हिंदी में प्रचलित रूपों में यथास्थान नुक्ते लगाए जाएँ। जैसे, खाना - ख़ाना, राज - राज़, फन - हाइफ़न आदि."
अब शहर शब्द को शह्र रूप में न उच्चारित कर शहर ही उच्चारित किया जाए तब भी उसके अर्थ और सम्प्रेषण में कोई अंतर नहीं आएगा किन्तु ख़ुदा/खुदा और सजा/सज़ा में ऐसा नहीं किया जा सकता क्योकि इससे अर्थ भिन्नता हो रही है. इसलिए जहाँ उनका शुद्ध विदेशी रूप में प्रयोग अभीष्ट हो वहां ऐसा करना आवश्यक होना उचित है.
मेरी ग़ज़ल में जो काफ़िया प्रयुक्त हुए है वो बोलचाल की भाषा के अनुरूप ही हुए है अगर इन्हें मूल रूप में फ़ारसी लिपि के अनुरूप लिखे जाए तो इसके लिए हमें वह लिपि भी आनी चाहिये । जो वास्तव में संभव नहीं है कि प्रत्येक नई विधा के लिए नई भाषा और लिपि सीखी जाए. मुझे इस विषय में यह मानना उचित लगता है कि जो विधा जिस लिपि में लिख रहे है उसके लिए उसी लिपि के नियमों के पालन की अनिवार्यता होनी चाहिये.यदि हम देवनागरी में लिख रहे हैं तो हमें देवनागरी के नियमों के पालन की अनिवार्यता होनी चाहिये. इसलिये यदि हम देवनागरी में ग़ज़ल कह रहे हैं तो ऐसे काफिये में ग़ज़ल कहने की छूट होनी चाहिये. और अगर हम देवनागरी में ग़ज़ल कह रहे हैं तो हमें छोटी ईता की छूट भी होनी चाहिये. यदपि मैं व्यक्तिगत तौर पर छोटी ईता दोष की छूट के लिए आग्रही नहीं हूँ. वास्तव में आज की बोलचाल और मीडिया की भाषा बहुत अधिक भाषा विशेष की आग्रही नहीं रह गई है अब न तो हिन्दीभाषा संस्कृतनिष्ठ शैली की रही है और न ही उर्दूभाषा फारसीनिष्ठ शैली की. अब अधिक सरल, आम बोलचाल की, हिंदुस्तानी शैली वाली भाषा अधिक दिखाई दे रही है. हम जो लिखते है वो इसी भाषा का प्रयोग करने वालें लोगो के लिए लिखते है.
आदरणीय अनुराग भाई जी ने टिप्पणी में कहा है- “नुक्ता लगाना भी लाज़िमी नहीं शायद , इससे और आसानी होती.” इस कथन पर आदरणीय सौरभ सर आप स्वयं पहले ही कह चुके है और स्थिति भी स्पष्ट कर चुके है. मैं अपने विचार से सिर्फ इतना कहना चाहूँगा कि जहाँ उर्दू के ऐसे शब्द जिनमें विशिष्ट रूप में लिखना अभीष्ट हो वहां नुक्ता लगाना ही चाहिए अन्यथा ख़ुदा/खुदा वाला अंतर समझने में परेशानी होगी किन्तु जहाँ अभीष्ट न हो वहां नुक्ता न लगाने से भी कहन के सम्प्रेषण में परेशानी नहीं है, तो इसकी अनिवार्यता नहीं होनी चाहिए. चूंकि सीखने की प्रक्रिया में हूँ और यकीनन ये प्रक्रिया ताउम्र जारी रहेगी इसलिए आप लोगो से जो नई जानकारी और मार्गदर्शन मिलता है उसे तत्काल सीख /समझ लेता हूँ और काफी हद तक आत्मसात भी करने का प्रयास करता हूँ. इस पूरी चर्चा में आदरणीय सौरभ सर, आपसे जो मार्गदर्शन मिला उसके लिए ह्रदय से आभारी हूँ. नमन.
और जहाँ तक फ़सल, शहर और बहर आदि-आदि शब्दो की बात है तो हिन्दी ग़ज़लकार यदि इन शब्दों का इसी रूप में प्रयोग करते हैं, जैसा मैंने लिखा है तो कोई अच्छा जानकार, भले ही वो उर्दू भाषा में लिखने वाला हो, या उर्दू का हिमायती हो, अब नाक-भौं नहीं सिकोड़ता.
सतह शब्द का मूल रूप सत्ह है यह कितने हिन्दी भाषी किन्तु ’उर्दू शब्द मूल रूप में ही हो के आग्रही’ जानते हैं ?
साथ ही, कितने सतह को सत्ह लिखते हैं ? (इस उदाहरण को प्रस्तुत करने का विशेष उद्येश्य है)
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