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फिर-फिर पुलकें उम्मीदों में (नवगीत) // --सौरभ

फिर-फिर पुलकें उम्मीदों में
कुम्हलाये-से दिन !

सूरज अनमन अगर पड़ा था..
जानो--
दिन कैसे तारी थे..
फिर से मौसम खुला-खुला है..
चलो, गये जो दिन भारी थे..


सजी धरा
भर किरन माँग में
धूल नहीं किन-किन !

नुक्कड़ पर फिर
खुले आम

इक ’गली’

’चौक’ से मिलने आयी
अखबारों की बहस बहक कर
खिड़की-पर्दे सिलने आयी

चाय सुड़कती अदरक वाली
चर्चा हुई कठिन.. .

हालत क्या थी
कठुआए थे
मरुआया तन माघ-पूसता  
कुनमुन करते उन पिल्लों का
जीवन तक था प्राण चूसता !

वहीं पसर अब उस कुतिया ने
चैन लिये हैं बिन... .

पंचांगों में उत्तर ढूँढें,
किन्तु, पता क्या,
कहाँ लिखा क्या ?
’हर-हर गंगे’ के नारों में
सबकुछ नीचे बहा दिखा क्या ?


फिरभी तिल-गुड़ के छूने को
सिक्कों में मत गिन.
*************
--सौरभ
(मौलिक और अप्रकाशित)


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Comment by somesh kumar on January 8, 2015 at 4:07pm

अदरक वाली चाय ,कुतिया को पिल्लों के लिए ठंड की परवाह ना करते हुए खुले में उनको स्तन-पान करने के लिए लेट जाना ,और संक्रांति की गुड़-तिल की परम्परा को निभाने की आवश्कता ,नवगीत निश्चय ही सजीव हो उठा |

Comment by Shyam Narain Verma on January 8, 2015 at 3:44pm
बहुत सुंदर नवगीत...बहुत-बहुत बधाई
Comment by khursheed khairadi on January 8, 2015 at 3:02pm

नुक्कड़ पर फिर 
खुले आम

इक ’गली’

’चौक’ से मिलने आयी

 
अखबारों की बहस बहक कर 
खिड़की-पर्दे सिलने आयी 

आदरणीय सौरभ सर , मानवीयकरण की उत्कृष्ट बानगी है |सुन्दर नवगीत के लिए हृदयतल से बधाई |सादर अभिनन्दन |

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