फिर-फिर पुलकें उम्मीदों में
कुम्हलाये-से दिन !
सूरज अनमन अगर पड़ा था..
जानो--
दिन कैसे तारी थे..
फिर से मौसम खुला-खुला है..
चलो, गये जो दिन भारी थे..
सजी धरा
भर किरन माँग में
धूल नहीं किन-किन !
नुक्कड़ पर फिर
खुले आम
इक ’गली’
’चौक’ से मिलने आयी
अखबारों की बहस बहक कर
खिड़की-पर्दे सिलने आयी
चाय सुड़कती अदरक वाली
चर्चा हुई कठिन.. .
हालत क्या थी
कठुआए थे
मरुआया तन माघ-पूसता
कुनमुन करते उन पिल्लों का
जीवन तक था प्राण चूसता !
वहीं पसर अब उस कुतिया ने
चैन लिये हैं बिन... .
पंचांगों में उत्तर ढूँढें,
किन्तु, पता क्या,
कहाँ लिखा क्या ?
’हर-हर गंगे’ के नारों में
सबकुछ नीचे बहा दिखा क्या ?
फिरभी तिल-गुड़ के छूने को
सिक्कों में मत गिन.
*************
--सौरभ
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
अदरक वाली चाय ,कुतिया को पिल्लों के लिए ठंड की परवाह ना करते हुए खुले में उनको स्तन-पान करने के लिए लेट जाना ,और संक्रांति की गुड़-तिल की परम्परा को निभाने की आवश्कता ,नवगीत निश्चय ही सजीव हो उठा |
बहुत सुंदर नवगीत...बहुत-बहुत बधाई |
नुक्कड़ पर फिर
खुले आम
इक ’गली’
’चौक’ से मिलने आयी
अखबारों की बहस बहक कर
खिड़की-पर्दे सिलने आयी
आदरणीय सौरभ सर , मानवीयकरण की उत्कृष्ट बानगी है |सुन्दर नवगीत के लिए हृदयतल से बधाई |सादर अभिनन्दन |
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