आप कविता लिखते हैं ? .. कौन बोला लिखने को..?
शब्द पीट-पीट के अलाय-बलाय करने को ?
मारे दिमाग़ खराब किये हैं ?
कुच्छ नहीं बदलता.. कुच्च्छ नहीं. ..
इतिहास पढ़े हैं ?
क्या बदला आजतक ? ...
खलसा कलेवर !
केवल ढंग !
महज़ अंदाज़ !
बकिया सब ?.. .
जो ढेरम्ढेर लिख-लिख पूछते फिरियेगा न, तो बुद्धिजीवी नहीं
सीधा ’नकसल्ली’ कहलाइयेगा.. एक नम्मर का बवाली..
किसी सोये को उकसाना.. मालूम ? घोर हिंसा को बढ़ावा देना है !
पता है.. ?
जाइये, बोल-बचन बनाइये,
शब्द गढ़िये, मात्रा गिनिये, पंक्तियों में गठन लाइये..
छन्द निभाइये.. आ मस्त रहिये !
गाँव-समाज-दुख-व्याधि-मानवता.. ऐसी की तैसी..
एक पूरा समाज भहराया पड़ा है.. त्रस्त.. लाल-लाल आँखें लिये.
ऐसे समाज के कुनबों को कुचलना
प्रशासन को सहयोग देना होता है / हमेशा से !
सभी प्रशासन को सहयोग दें.. देना ही चाहिये..
तभी दिन अच्छे आ पायेंगे.
विशिष्ट जमात में अपनी आमद की रौनक बजती है..
जाइये, आप भी रौनक बजाइये..
कापुरुषत्व अब सधे पौरुष का पर्याय है.
और साहित्य का संधान -- हाशिये पर पड़े.. नहीं-नहीं.. .
मुँहचोर हुआ करते हैं अब !
***************
-सौरभ
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(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
मुझे कुछ सवैया छंद पढ़ने का मन हुआ तो आदरणीय सौरभ जी की गली में तोह लेने निकल गए। यहां तो एक से बढ़कर एक इतनी सामग्री मिली पढ़ने को की सब सवैया छंद भूल गए। सादर नमन
जो ढेरम्ढेर लिख-लिख पूछते फिरियेगा न, तो बुद्धिजीवी नहीं
सीधा ’नकसल्ली’ कहलाइयेगा.. एक नम्मर का बवाली..
किसी सोये को उकसाना.. मालूम ? घोर हिंसा को बढ़ावा देना है ! ·······ई एक नम्मर का बहुत खिसिआन कविता हुई है। मैं तो पढ़ते -पढ़ते ही घबरा रही थी की एक -दो शब्दों का ई मोटका डंडा मेरे माथे भी न बजर जाए। ई तो जबरदस्त करेजा तोड़ै बला अतुकांत है जी। बधाई आपको आदरणीय इस गरम मिज़ाजी लठमार कविता के लिए। हा हा हा हा --बहुत बढ़िया।
क्या बात है। ये रचना इस बात का उदाहरण है कि सपाटबयानी में भी कविता को जिन्दा रखा जा सकता है बशर्ते आपमें सच लिखने का साहस हो। बधाई स्वीकारें सौरभ जी।
आप कविता लिखते हैं ? .. कौन बोला लिखने को..?
शब्द पीट-पीट के अलाय-बलाय करने को ?
मारे दिमाग़ खराब किये हैं ?
कुच्छ नहीं बदलता.. कुच्च्छ नहीं. ..
वाह सर वाह क्या बात है कुछ भी लिख देने से साहित्य नहीं बन जाता
आप कविता लिखते हैं ? .. कौन बोला लिखने को..?
शब्द पीट-पीट के अलाय-बलाय करने को ?
मारे दिमाग़ खराब किये हैं ?
कुच्छ नहीं बदलता.. कुच्च्छ नहीं. ..
इतिहास पढ़े हैं ?
क्या बदला आजतक ? ...
खलसा कलेवर !
केवल ढंग !
महज़ अंदाज़ !
बकिया सब ?.. .
शुद्ध देशी लताड़ .... अतुकांत कविता की विधा का मुझे बिलकुल भी ज्ञान नहीं है इसलिए टिप्पणी सीमित शब्दों में कर रहा हूँ... पढ़कर आनंद आया और सोचने को मजबूर भी हुआ ..... शायद पाठक आनंद ले और कुछ सोचने पर मजबूर हो जाए यही कविता का उद्देश्य होता है. .... लेकिन सबसे ज्यादा जरुरी है बकिया सब ...? प्रयास करेंगे कि बकिया सब ...? का ध्यान रखे. आदरणीय सौरभ सर इस विशिष्ट प्रस्तुति पर बधाई और कविता के विशिष्ट शब्दों की बानगी के लिए नमन
आदरणीय ,इस रचना ने अंदर तक दोलित कर दिया ,शायद हर कविता लिखने वाले बावले का आज यही जुमला सुनने को मिलता है ,शायद कविता से युग-परिवर्तन करने का दौर ही नहीं रहा ,मैं ये तो नहीं कहूँगा की कविता नहीं रही पर यही कहूँगा की शब्दों की फकीरी ही नहीं रही ,कविता आज बहुत कुछ है पर क्या आन्दोलन का माध्यम है ?शायद ये स्व-स्तुति और चाकरी का नया संधान है ,मनोरंजन की नई लकदक के सामने ये फीकी है ,ऐसे में आपकी कविता एक फटकर नहीं अपितु एक चेतावनी है ,की हमे क्या लिखना चाहिए और क्या करना चाहिए की कविता और कवि बना रहे |आपकी लेखनी से निकली इस कविता को आपको प्रणाम
कापुरुषत्व अब सधे पौरुष का पर्याय है.
किसी सोये को उकसाना.. मालूम ? घोर हिंसा को बढ़ावा देना है !
पता है.. ?
गाँव-समाज-दुख-व्याधि-मानवता.. ऐसी की तैसी.
आदरणीय सौरभ सर व्यंग्य अपने चरम पर है |आदरणीय धूमिल जी और शमशेर जी वाली धार पुनः लौट आयी है |सादर अभिनन्दन
आदरणीय सौरभ भाई , अलग ही तेवर मे आपने ये रचना की है , बहुत तीख़ा व्यंग्य , व्यवस्था पर करारा प्रहार किया है आपने ।
जो ढेरम्ढेर लिख-लिख पूछते फिरियेगा न, तो बुद्धिजीवी नहीं
सीधा ’नकसल्ली’ कहलाइयेगा.. एक नम्मर का बवाली..
किसी सोये को उकसाना.. मालूम ? घोर हिंसा को बढ़ावा देना है !
पता है.. ? - सत्य वचन , आदरणीय । रचना के लिये हार्दिक बधाइयाँ ।
आदरणीय सौरभ जी
ठेठ देसी भाषा में लताड़ ----
आप कविता लिखते हैं ? .. कौन बोला लिखने को..?
शब्द पीट-पीट के अलाय-बलाय करने को ?
मारे दिमाग़ खराब किये हैं ?------------------------------------- कवियों सावधान हो जाओ i अलाय -बलाय नहीं चलेगा I
कुच्छ नहीं बदलता.. कुच्च्छ नहीं. ..
इतिहास पढ़े हैं ?
क्या बदला आजतक ? ...
खलसा कलेवर !
केवल ढंग !
महज़ अंदाज़ !
बकिया सब ?.. . ------------------------------------------इतिहास से सीख लो भाई i रुसो , वोल्टायर मत बनो i क्या होगा ?
जो ढेरम्ढेर लिख-लिख पूछते फिरियेगा न, तो बुद्धिजीवी नहीं
सीधा ’नकसल्ली’ कहलाइयेगा.. एक नम्मर का बवाली..
किसी सोये को उकसाना.. मालूम ? घोर हिंसा को बढ़ावा देना है !
पता है.. ? ------------------------------- भैये ! वे दिन बीत गए जब कवि जागरण का शखनाद करते थे i पर अब सोते को जगाना ----
जाइये, बोल-बचन बनाइये,
शब्द गढ़िये, मात्रा गिनिये, पंक्तियों में गठन लाइये..
छन्द निभाइये.. आ मस्त रहिये !--------------------------------- हां स्वान्तः सुखी गाइए किसने रोका है पर मुक्तिबोध मत बनिए
गाँव-समाज-दुख-व्याधि-मानवता.. ऐसी की तैसी..
एक पूरा समाज भहराया पड़ा है.. त्रस्त.. लाल-लाल आँखें लिये.
ऐसे समाज के कुनबों को कुचलना
प्रशासन को सहयोग देना होता है / हमेशा से !
सभी प्रशासन को सहयोग दें.. देना ही चाहिये..
तभी दिन अच्छे आ पायेंगे
विशिष्ट जमात में अपनी आमद की रौनक बजती है..
जाइये, आप भी रौनक बजाइये...--------------------------------------क्रूर, कुटिल व्यंग्य , आहा
कापुरुषत्व अब सधे पौरुष का पर्याय है. ----------------------- अजगुत ,अद्भुत, अनिवर्चनीय
और साहित्य का संधान -- हाशिये पर पड़े.. नहीं-नहीं.. .
मुँहचोर हुआ करते हैं अब !--------------------------------- सत्य बचन i हांशिये पर रह्ते तब भी ठीक था I
बहुत ही लीक से हटकर i अकल्पनीय रचना i सादर i
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