मेरा जीवन पी गया, तेरी कैसी प्यास । |
पनघट से पूछे नदी, क्यों तोड़ा विश्वास ।१। |
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मन में तम सा छा गया, रात करे फिर शोर। |
दिनकर जो अपना नहीं, क्या संध्या क्या भोर ।२। |
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बैठे बैठे रो रही, बरगद की अब छाँव । |
कौन चुराकर ले गया, पंछी वाला गाँव ।३। |
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नटखट को फटकारियें, सोचें उसके बाद । |
जायेगी किस पे भला, अपनी है औलाद ।४। |
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कच्चा मन! कच्ची उमर ! उफ़ टूटे जब ख्वाब । |
बित्ते भर रूमाल में,....... मुट्ठी भर सैलाब ।५। |
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अपना घर करने लगा, अपना ही अपमान । |
दस्तक सुनकर मौन है,....दीवारों के कान ।६। |
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एक अकेले प्रश्न पर, सारी गलियाँ मौन । |
पूछ रहा है वक्त भी,... राह दिखाएँ कौन ।७। |
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उजड़े से सब खंडहर,....... कहते है इतिहास । |
सोच समझ के कीजिये, अपनों पर विश्वास ।८। |
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(मौलिक व अप्रकाशित) © मिथिलेश वामनकर |
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Comment
कच्चा मन, कच्ची उमर, के जब टूटें ख्वाब । |
बित्ते भर रूमाल में,....... मुट्ठी भर सैलाब ।५। |
गजब ----गजब--------गजब ---- क्या बेहतरीन दोहे है i बधाई हो i |
बहुत सुंदर दोहें हार्दिक बधाई स्वीकार करें
आ0 भाई मिथिलेश जी , बहुत बेहतरीन दोहे हुए हैं. बहुत कुछ सोचने को विवश करते हैं . हार्दिक बधाई .
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