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मेरा जीवन पी  गया, तेरी कैसी प्यास ।

पनघट से पूछे नदी, क्यों तोड़ा विश्वास ।१।

                 

मन में तम सा छा गया, रात करे फिर शोर।

दिनकर जो अपना नहीं, क्या संध्या क्या भोर ।२।

                 

बैठे बैठे रो रही, बरगद की अब छाँव ।

कौन चुराकर ले गया, पंछी वाला गाँव ।३।

                 

नटखट को फटकारियें, सोचें उसके बाद ।

जायेगी किस पे भला, अपनी है औलाद ।४।

                 

कच्चा मन! कच्ची उमर ! उफ़ टूटे जब ख्वाब ।

बित्ते भर रूमाल में,....... मुट्ठी भर सैलाब ।५।

                 

अपना घर करने लगा, अपना ही अपमान ।

दस्तक सुनकर मौन है,....दीवारों के कान ।६।

                 

एक अकेले प्रश्न पर,  सारी गलियाँ मौन ।

पूछ रहा है वक्त भी,... राह दिखाएँ कौन ।७।

                 

उजड़े से सब खंडहर,....... कहते है इतिहास ।

सोच समझ के कीजिये, अपनों पर विश्वास ।८।

 

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 13, 2015 at 5:34pm

कच्चा मन, कच्ची उमर, के जब टूटें ख्वाब ।

बित्ते भर रूमाल में,....... मुट्ठी भर सैलाब ।५।

  गजब    ----गजब--------गजब ----       क्या बेहतरीन दोहे है  i  बधाई हो i         

Comment by Shyam Narain Verma on January 13, 2015 at 2:21pm

बहुत सुंदर दोहें हार्दिक बधाई स्वीकार करें

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 13, 2015 at 11:01am

आ0 भाई मिथिलेश जी , बहुत बेहतरीन दोहे हुए हैं. बहुत कुछ सोचने को विवश करते हैं . हार्दिक बधाई .

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