कई रोज से खाली पेट थी
संभाल न सकी भूख
पसीज कर
दया करूणा ने
दो रोटी दस रूपये में
इतना भरा उसका पेट
फिर नौ माह
फूला रहा
वो कुत्ता बिल्ली नहीं थी
बिना किसी एवज
भूख मिटा दी जाती
विक्षिप्त थी तो क्या
थी तो स्त्री न
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आशा पाण्डेय ओझा
मौलिक अप्रकाशित
Comment
आदरणीय आशा पाण्डेय जी ,थी तो स्त्री ... में इस मार्मिक बिंदु को इतनी शालीनता व् खूबसूरती से प्रस्तुत करने के लिए हार्दिक बधाई।
अन्तः मन को झकझोरती इस शानदार रचना के लिए ढेरों बधायी स्वीकार करें सादर
Bahot Hi sundar
उफ्फ्फ़ दिल चीर कर रख दिया इस प्रस्तुति में चंद शब्दों ने वो सब कह दिया जो एक समाज के एक घ्रणित चेहरे को कटघरे में खड़ा करने के लिए काफी हैं दिल से बधाई इस प्रस्तुति पर |
आदरणीय प्राची जी बहुत शुक्रिया यह भारत की वह सच्चाई है जो हर शहर की दो चार गलियों में रूबरू हो जाती है यह वह पीड़ा है स्त्री अपनी अस्मिता बचाने के प्रयत्न में जितनी छटपटा रही है दुचेष्टाओं के दुर्योदन उतना ही जकड रहे हैं हार्दिक धन्यवाद आपकी कीमती प्रतिक्रिया के लिए
आ० आशा जी
अभिव्यक्ति की विषयवस्तु को इतनी सांद्रता से आपने शब्द दिए हैं... मन सन्न है वेदना की तहें खोल कर.
चुभते सत्य के धरातल पर बहुत ही प्रभावी रचना हुई है
शुभकामनाएं स्वीकारें
सस्नेह
आदरनीय सौरभ पाण्डेय जी भाईसाहब स्त्रियों की स्तिथि बहुत भयानक है इक्कसवी सदी में भी वो कॉलेज , बस,ट्रेन ,स्कूल ,बचपन जवानी बुढ़ापा ,यहाँ तक की पागलपन की स्तिथि में भी सुरक्षित नहीं .. स्त्री अस्मिता .. उसकी सुरक्षा के दावे सब खोखले घोषित हो रहे हैं .. वो पगली पागलखाने में डाली गई बच्चे सहित .. पर वो दानवीर वो तो कहीं समाज सेवा का तमगा लेकर सम्मानित हो रहा होगा .. हार्दिक आभार भाईसाहब आपकी इस चिंतन परक गंभीर प्रतिक्रिया के लिए
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