कई रोज से खाली पेट थी
संभाल न सकी भूख
पसीज कर
दया करूणा ने
दो रोटी दस रूपये में
इतना भरा उसका पेट
फिर नौ माह
फूला रहा
वो कुत्ता बिल्ली नहीं थी
बिना किसी एवज
भूख मिटा दी जाती
विक्षिप्त थी तो क्या
थी तो स्त्री न
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आशा पाण्डेय ओझा
मौलिक अप्रकाशित
Comment
आदरणीय JAWAHAR LAL SINGH जी हार्दिक धन्यवाद आपकी कीमती प्रतिक्रिया के लिए
आदरणीया आशाजी, आपकी पंक्तियों ने दिल को चीर कर रख दिया है. जिस गहराई से आपने एकांगी दर्द को साझा किया है वह क्लिष्ट समाज की जुगुप्साकारी भावनाओं को परत-परत उघारती है. स्त्री की अस्मिता पर इतना बड़ा प्रश्न चिह्न लगाता हुआ वह समाज खिलवाड करता है जिसके लिए मातृसत्ता को नकारना कठिन है. हर कदम पर !.
आपकी प्रस्तुत रचना और आपकी संवेदनशीलता के प्रति मन नत है.
सादर बधाइयाँ
मार्मिक और हृदयविदारक पर समाज की सच्चाई की और इंगित करती हुई रचना आदरणीया आशा जी!
सम्मानीय somesh kumar जी धन्यवाद सही खा आपने समाज में ऐसे सभ्य विक्षिप्त बहुत हैं
सम्मानीय Hari Prakash Dubey जी बहुत बहुत धन्यवाद आपका _/\_
सम्मानीय khursheed khairadi जी दिल से आभार _/\_
स्नेहिल अमन कुमार जी बहुत बहुत शुक्रिया _/\_
हार्दिक धन्यवाद सम्मानीय laxman dhami जी _/\_ वेसे नाम मेरा आशा है प्रतिभा नहीं
आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी सर आपका हृदय से आभार
हार्दिक धन्यवाद सम्मानीय श्याम नारायण वर्मा जी _/\_
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