2122- 1212- 1212- 22 /112
कोई सूरत तो हो कि तुझपे ऐ’तबार आये
क्या पता दिलफ़रेब बन के ग़मग़ुसार आये
मैं तुझे भूलने की कोशिशों में हूँ बेचैन
पर मुझे तेरा ही खयाल बार-बार आये
ज़ीस्त गुज़री ख़मोशियों के दरमियान मगर
ये हुआ वक़्ते मर्ग लोग बेशुमार आये
दिल नज़ारा ए रंगो गुल को कब से तरसे है
ऐ खुशी काश तू मिसाले नौबहार आये
कौन सा दह्र है ये कौन सी जगह है जहाँ
दूर तक बस नज़र गुबार ही गुबार आये
(दिलफ़रेब- धोखा देने वाला, ग़मग़ुसार- हमदर्द, वक़्ते मर्ग- मौत के समय
मिसाले नौबहार- बहार की तरह, दह्र- काल)
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय हरिप्रकाश दूबे जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया
जनाब खुर्शीद खैराड़ी साहब आपका तहेदिल से शुक्रिया। वैसे जिन अशआर की बात कर रहे हैं उनमें से एक को मैंने कुछ यूँ लिखा था
"आँधियों की है रौ कि कोई काफिला गुज़रा
दूर तक बस नज़र गुबार ही गुबार आये"
बाद में बदल दिया :-))
आदरणीय गिरिराज सर रचना की सराहना के लिये आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीय डॉ गोपाल नारायण सर आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी आपका हार्दिक आभार
आदरणीय श्याम नारायण वर्मा सर आपका आभार
आदरणीय मिथिलेश जी रचना की सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार
achhee rachnaa mitra
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