121 - 22 / 121 - 22 / 121 - 22 / 121 – 22 |
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बड़े ही जोरो से इस ज़हन में अज़ब धमाका हुआ फरिश्तो |
फिज़ा में हलचल, हवा में दिल का गुबार छाया हुआ फरिश्तो |
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किसे पड़ी है सुकून से जो मुआमला क्या हमें बताये |
वहां पे ऐसा नहीं हुआ था असल में ऐसा हुआ फरिश्तो |
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न पेश करना किसी का दामन, न गेसुओं से शिकस्त काँधे |
हरेक लम्हां हयात का ये बहुत गुजारा हुआ फरिश्तो |
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गिरां से जो था कि मुब्तला अब बड़े सुकूं से वो सो रहा है |
रहम कज़ा का चलो मिला जो सदी का जागा हुआ फरिश्तो |
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जहां परेशां है नक्शगर से, अजाब-ए-मातम गम-ए-जां ख़ाका |
ये देवताओं ने चित्र कितना अजब बनाया हुआ फरिश्तो |
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सियासती जो दयार उनका, हमें तो मितली सी आ गई थी |
किसी का थूका हुआ कही पे, किसी का चाटा हुआ फरिश्तो |
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यकीन ताजिंदगी हमारा वो साथ मानो निभा ही लेगा |
जरा सही पर हमें किसी पर गज़ब भरोसा हुआ फरिश्तो |
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(मौलिक व अप्रकाशित) © मिथिलेश वामनकर |
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(संशोधित ग़ज़ल: आदरणीय गिरिराज सर और आदरणीय वीनस भाई जी के मार्गदर्शन अनुसार) |
Comment
वाह वाह, बहुत सुन्दर, सभी अशआर एक से बढ़कर एक हुए हैं, किसी का थूका, किसी का चाटा .....क्या बात कही है, बहुत बहुत बधाई और शुभकामना आदरणीय मिथिलेश जी.
आदरणीय मिथिलेश भाई , बहुत कठिन बहर मे आपने गज़ल कही है , बहुत सुन्दर !! हार्दिक बधाइयाँ कुबूल करें ।
कुछ मिसरों मे बह्र की कठिनाई का दबाव लग रहा है , बात सामान्य है , इसलिये इंगित नही कर रहा हूँ । आप स्वयं पढ़ के देखियेगा और कहन के लिहाज़ से , कुछ और कह सकें तो दुरुस्त कर लीजियेगा । गलत कुछ भी नही है ।
सन्नटा को सनाटा कहना उचित है क़्या ? सोच लीजियेगा ।
आदरणीय सोमेश भाई जी आपके स्नेह और सराहना से बहुत उत्साह मिलता है. हार्दिक आभार ... बहुत बहुत धन्यवाद
आदरणीय उमेश कटारा जी सराहना हेतु हार्दिक आभार, बहुत बहुत धन्यवाद
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