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( ग़ज़ल ) कोई ये कहे कैसे , मैं ही था गलत यारों - ( गिरिराज भंडारी )

212  1222     212    1222

क्या हुआ है रातों में, झुरमुटों से पूछो तुम

रो रहीं हवायें क्यूँ , डालियों से पूछो  तुम

 

ग़ायबाना भौंरों  के , फूल  क्यूँ   अधूरे हैं    --  ग़ायबाना - अनुपस्थिति में

सच तुम्हें बतायेंगीं , तितलियों से पूछो तुम

 

क्या हुआ है चंदा को, क्यूँ नज़र नहीं आता

ये चकोर क्या जाने, बदलियों से पूछो तुम

 

कोई ये कहे कैसे , मैं ही था गलत यारों

गोलियाँ चलीं कैसे , घाटियों से पूछो तुम

 

बे सदा  रहें तो क्यों , रिश्ते टूट  जाते हैं

दम ब दम बढ़ीं कैसे , दूरियों से पूछो तुम

 

बे गरज़ हक़ीकत अब , बोल कौन पाता है

तल्ख़ियाँ सहन हों तो , आइनों से पूछो तुम  

 

उम्र मेरी कितनी है , दर्द है कहाँ मुझको

किस तरह यहाँ पहुँचा , सीढ़ियों से पूछो तुम

**************************************** 

मौलिक एवँ अप्रकाशित

 

 

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Comment by मिथिलेश वामनकर on January 20, 2015 at 11:28am
हा हा हा भौरों वाले अशआर में आपने बह्र निभाने में छोटी त्रुटी की थी मैंने सुझाव में और बड़ी त्रुटी कर दे मेरा सुझाव पूरा बे बह्र था। आपने अब दुरुस्त कर लिया शेर। उम्दा शेर हो गया। बधाई
Comment by Dr. Vijai Shanker on January 20, 2015 at 10:23am
सुन्दर प्रस्तुति , आदरणीय गिरिराज भंडारी जी, बधाई, सादर।

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Comment by गिरिराज भंडारी on January 20, 2015 at 8:24am

आदरणीय मिथिलेश भाई , आपने मेरा दिल जीत लिया , दुबारा मेरी ग़ज़ल पर आके । भौरों वाला मिसरा तो बेबहर है । लेकिन आपका सुझया मिसरा भी बेबहर ही है -- आज बिन/ 212 ,  भौरों के/ 222 ,   फूल क्यूं/ 212,  अधूरे है/ 1222  इसे मै सुधार अपने हिसाब से सुधार लूंगा , आपकी दूसरी सलाह वैस के वैसे स्वीकार कर रहा हूँ । आपकी सलाह और सराहना के लिये आपका दिली शुक्रिया ।


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Comment by गिरिराज भंडारी on January 20, 2015 at 8:08am

आदरणीय राहुल भाई , आपकी इनायतों का तहे दिल से शुक्रिया ।


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Comment by गिरिराज भंडारी on January 20, 2015 at 8:03am

आदरणीय गुमनाम भाई , आपका आभार ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 20, 2015 at 8:03am

आदरनीय आशुतोष भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका बहुत बहुत आभार । 

भौंरो वाला मिसरा , आदरणीय बेबह्र है , उसमे सुधार कर रहा हूँ । ध्यान दिलाने का शुक्रिया ।


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Comment by गिरिराज भंडारी on January 20, 2015 at 8:01am

आदरणीय हरि प्रकाश भाई , आपकी सराहना और उत्साह वर्धन के लिये आपका आभारी हूँ ।

Comment by Rahul Dangi Panchal on January 20, 2015 at 7:05am
आदरणीय गिरीराज जी बहुत सुन्दर गजल वाह!

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 20, 2015 at 3:53am

आय हाय ...कमाल है गिरिराज सर... बह्र पे तो ध्यान ही नहीं गया था.... अभी फिर से पढ़ी तो गुनगुनाते हुए झूम गया हूँ. ये मेरी पसंदीदा बह्र में से एक है ... इस बह्र को हमेशा गुनगुनाते रहता हूँ. आपकी ग़ज़ल का सही आनंद अभी ले पाया ... आपकी ग़ज़ल पर सुझाव दिए बिना दिल को ठंडक नहीं मिलती इसलिए जहाँ मुझे गुनगुनाने में दिक्कत हुई और बह्र निभाई की अड़चन लगी वहां के लिए सलाह आपको उचित लगे तो ...

भौंरों  बिन  बाग़ों  के  फूल  क्यूँ अधूरे हैं.............. साथ/आज बिन भौरों के, फूल क्यूं अधूरे है 

सच तुम्हें बतायेंगीं , तितलियों से पूछो तुम......... सच तुम्हें बतायेंगीं , तितलियों से पूछो तुम

उम्र मेरी कितनी है , दर्द है कहाँ मुझको.........उम्र मेरी कितनी है , दर्द है कहाँ मुझको

कैसे मैं चढ़ा ऊपर , सीढ़ियों से पूछो तुम...... किस तरह यहाँ पहुँचा, सीढ़ियों से पूछो तुम

बाकी अशआर कमाल, आहंगखेज़ और बेहतरीन है.  दिल से दाद कुबूल कीजिये 

इस बह्र को गुनगुनाने के लिए मैं दाता फिल्म के विदाई गीत "बाबुल+का ये घर गोरी, कुछ दिन+का ठिकाना है" की धुन का प्रयोग करता हूँ. इसमें बाबुल का को बाबुल्का और कुछ दिन का को कुछ दिन्का गाकर बह्र की लय बना लेता हूँ.सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 19, 2015 at 10:49pm
आदरणीय गिरिराज सर बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है हार्दिक बधाई।

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